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जनेन्द्र की कहानियां तृतीय भाग] बहती रहती हैं, बाँध-बाँध कर उन्हें अधिक उपयोगी बनाने की आवश्यकता है।" _. “यह क्या मतलब है कि जो अच्छा करे, उसे भी भरपूर खाने को मिले और जो कसूर करे, उनके भी खाने में कमी न आये । चारों ओर इस अनायास सुख की आवश्यकता नहीं है। जब तक दण्ड नहीं होगा, तब तक सुख नहीं हो सकता। और सुनिये, पतिव्रत-धर्म यहाँ नहीं है, न एक पत्नीत्रत-धर्म है, इस विषय में नियमहीनता लज्जाजनक है । मैं सब जगह नियमितता पसन्द करती हूँ । सोच रही हूँ कि स्वर्ग के लिए एक विधान तय्यार करूँ, ताकि स्वर्ग का संचालन नियमानुकूल हो।"
इन्द्र, "जो उचित समझती हो करो ! मैं किसी और विधान के बारे में नहीं मानता हूँ। विधि-विधान से ही शायद स्वर्ग स्वर्ग है। शेष तुम जानो ।मुझे तो अपनी पात्रता से अधिक बुद्धि मिली नहीं। फिर स्वर्ग का कर्ता मैं नहीं हूँ। वह तो ब्रह्मा जी हैं। उनसे मिलकर स्वर्ग को जैसे चाहो बदल सकती हो। मेरा अपना अधिकार कुछ नहीं है । मुझे तो यही याद नहीं रहता है कि मैं इन्द्र हूँ। तुम लोगों में कभी कुछ बिगाड़ आता है, तभी मुझे अपने इन्द्रपने का पता चलता है । नहीं तो मैं तो तुम सभी का एक हूँ। और एक सच्ची बात कहूँ, बुद्धि ? उसे अन्यथा न समझना । वह यह है कि स्वर्ग की सब अप्सराएँ तुम्हारे सामने माता हैं। तुम सबसे कम सुन्दरी हो । तुम में सौष्ठव नहीं है, भव्यता नहीं है । ठण्डक नहीं है । फिर भी तुम अपने ही रूप से ऐसी रूपसी हो कि स्वर्ग का सात्विक सौन्दर्य हेच मालूम होने लगता है। बुद्धि, तभी तो मन हो पाता है कि शची को छोड़ मैं तुम्हारा दास हो जाऊँ।"
यह कहकर इन्द्र मन्द-मन्द हँसने लगे। बुद्धि लाज में किंचित्