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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
लड़के की आँखें नीची थीं । कुछ मध्यम पड़कर पिता ने कहा, "भूख नहीं है तो जाने दो। लेकिन कल सबेरे नाश्ता करके ठीक वक्त से स्कूल चले जाना। देखो, इस उम्र में मेहनत से पढ़ लोगे और माँ-बाप का कहना मानोगे तो तुम्हीं सुख पाओगे । नहीं तो पीछे तुम्हें ही पछताना होगा । लो जाओ, कैसे अच्छे बेटे हो । बोलो, खाओगे ?"
जाते-जाते रामचरण ने कहा, "मुझे भूख नहीं है ।"
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पिता का जी यह सुनकर फिर खराब हो आया । लेकिन उन्होंने विचार से काम लिया और अपने को संयत रखा ।
अगले दिन देखा गया कि वह फिर समय पर नहीं उठ सका है । जैसे-तैसे उठाया गया है तो अनमने मन से काम कर रहा है। नाश्ते को कहा गया तो फिर नाश्ता नहीं ले रहा है ।
पिता ने बहुत धैर्य से काम लिया। लेकिन कई बार अनुरोध करने पर भी जब रामचरण ने यही कहा कि भूख नहीं है तो उनका धीरज टूट गया । तब उन्होंने उसे अच्छी तरह पीटा और अपने सामने नाश्ता कराके छोड़ा ।
उसके स्कूल जाने पर उनमें आत्मालोचना और कर्तव्य - भावना जागृत हुई। उन्होंने सोचा कि सायंकाल का समय वह मित्र मण्डली से बचाकर पुत्र को दिया करेंगे। उसे अच्छी-अच्छी बात बताएँगे और पढ़ाई की कमज़ोरी दूर करेंगे। पत्नी से कहकर रामचरण की अलमारी में से उन्होंने उसकी किताब और कापियाँ मँगाई। वह कुछ समय लगाकर रामचरण की पढ़ाई-लिखाई के बारे में परिचय पा लेना चाहते थे । पहले उन्होंने पुस्तकें देखीं, फिर कापियाँ देखीं । कापियों से अन्दाजा हुआ कि उसका कम्पोजीशन बहुत खराब है और भाषा का ज्ञान काफी नहीं है। किन्तु अन्तिम कापी जो सबसे