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जनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] "अच्छा पतंग-वाला कौनसा है ? दाईं तरफ का वह चौराहे वाला ?' उसने कुछ ओंठों में ही बड़बड़ा दिया । जिसे मैं कुछ न समझ सका ।'
"वह चौराहे वाला ? बोलो-"
"देखो अपने चाचा को साथ ले जाओ। बता देना कि कौनसा है । फिर उसे स्वयं भुगत लेंगे। समझते हो न ?”
यह कहकर मैंने अपने भाई को बुलवाया। सब बात समझाकर कहा, "देखो पाँच आने के पैसे ले जाओ। पहले तुम दूर रहना। अशुतोष पैसे ले जाकर उसे देगा और अपनी पाजेब माँगेगा। अव्वल तो वह पाजेब लौटा ही देगा। नहीं तो उसे डाँटना और कहना कि तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूंगा । बच्चों से माल ठगता है ? समझे ? नरमी की जरूरत नहीं है।"
"और आशुतोष अब जाओ अपने चाचा के साथ जाओ।" वह अपनी जगह पर खड़ा था। सुनकर भी टस-से-मस होता दिखाई नहीं दिया।
"नहीं जाओगे ?" उसने सिर हिला दिया कि नहीं जाऊँगा।
मैंने तब उसे समझाकर कहा कि भैया घर की चीज़ है, दाम लगे हैं। भला पाँच थानों में रुपयों का माल किसी के हाथ खो दोगे। जाओ चाचा के संग जाओ। तुम्हें कुछ नहीं कहना होगा। हाँ पैसे दे देना और अपनी चीज वापस माँग लेना। दे दे, नहीं दे नहीं दे। तुम्हारा इससे सरोकार नहीं। सच है न बेटे ! अब जाश्रो।
पर वह जाने को तैयार ही नहीं दीखा। मुझे उस लड़के की