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जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] सातवें में अव्वल पाया है और आठवें दर्जे में चढ़ा है।
धनंजय तेज चाल से चलता हुआ घर आया और कहा, "अम्मा ! मैं पास हो गया हूँ।"
उस की माँ काम में लगी थी और अनमनी थी ! वह ऐसे ही रहा करती है। एक बार तो उसने जैसे सुना नहीं। . हठात् अपने उत्साह को उठाते हुये धनंजय ने कहा, "हाँ, माँ, और अव्वल हूँ अपनी सारी क्लास में ।"
पर माँ में उत्साह न था । उसने कहा, 'अच्छा' और अपने हाथ काम से वह खींच न सकी। धनंजय ठिटका सा हो रहा । जैसे उसका अव्वल आना सही न हो, या उसका खुश होना गलत हो।
सहसा कुछ याद करके माँ ने कहा, "तो ले कुछ खा ले । सबेरे ही चला गया, बिन कुछ खाये-पिये। सुना ही नहीं, हाँ तो अब आया है नौ बजे!" धनंजय ने पूछा, "पिता जी गये ?" "मैं क्या जानूँ ? गये होंगे।"
धनंजय उत्तर के स्वर पर अस्त होने लगा। लेकिन फर्स्ट आना -छोटी बात न थी। बोला, "जल्दी चले गये आज, मैं तो आया था कि-"
माँ ने कहा, "हाँ-हाँ निहाल करके रख देते वह तो। ले बैठ ।" धनंजय को बात समझ न आई । पर आये रोज यह देखता है और समझने की चेष्टा छोड़ चुका है । ऐसे अनसमझे ही समझदार होता जा रहा है। माँ की मिड़की पर वह चुपचाप हो बैठा । और जो उसके सामने खाने को रख दिया गया, खाने लगा, खाते-खाते हठात् वह अन्यमनस्क हो पाया। दर्जे में पहले नम्बर प्राना और
ने पूछाहोगे।" लगा।