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________________ १९८ जैनेन्द्र की कहानियां द्वितीय भाग] बालक ने बहुत सोच-विचार में पड़कर पूछा, “सपने के कपड़े कैसे होते हैं, माँ ?" माँ ने कहा, "तुम स्वाना खाओ, मैं बताती हूँ।" बालक ने थाली पास सरका लेकर कहा, “वताओ।" बालक ने खाना शुरू किया, माँ ने बताना शुरू किया। बताया कि सपने के कपड़े बड़े महीन होते हैं । शवनम जानते हो ? उससे भी महीन होते हैं। मकड़ी का जाला देखा है ? उससे भी महीन होते हैं। वैसे ही कपड़े वह नीलम के देश की रानी पहनती है। बालक ने विस्मय से कहा, "अच्छा-आ!" उस नीलम के द्वीप में जो सूने महलों में सहस्रों बरसों से अकेली, छोटी-सी, राजकन्या रहती है, उस द्वीप की रानी है; और आदि से प्रतापी राजकुमार के आने की प्रतीक्षा में अकेलापन काट रही है । बचपन से कल्पना उसी के चारों ओर अपना बसेरा बनाती रही है। राजकुमार के छः भाई और हैं । वह सब से छोटा है। राज-काज में उसकी आवश्यकता नहीं है; और वह माँ के प्यार की छाँह में क्षत्रिय की भाँति नहीं, फूल की भाँति बढ़ रहा है। बढ़कर वह बड़ा हो रहा है। उसकी कल्पना अब पहले जैसी कच्ची नहीं है । पर कल्पना तो सदा कल्पना ही है। जितनी अधिक अवास्तवता को वह अपना सके उतनी ही तो वह बलिष्ठ होती है । वय के साथ राजकुमार की कल्पना का कत्तत्व भी बढ़ता गया है। जो राजकन्या नीलम के देश के महलों में अकेली है, वही धीरे-धीरे उसके जीवन में मानों अर्थ पकड़ती जा रही है। जैसे उसको लेकर यथार्थ ही उसे अपने भीतर अभाव अनुभव हो आने लगा है । प्रतापी राजकुमार क्या सात समन्दरों को पार न
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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