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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
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जाऊँगा । कैसी गर्मी है।" फिर कहा, “किशन महाराज, ऐसा किया तो वह चपत लगेंगे, हाँ कि तेरी माँ भी याद करे, समझे ?"
देखा गया कि दूसरे उसके साथी इस बीच बहुत ईर्ष्यालु और बेसबर हो आये हैं। तंजेब के कुर्ते वाले ने रौब से कहा, "ओ बे गाबढ़ी ला, अब इधर दे इधर । मेरे पास ताड़ का पंखा है ।" कहने के साथ खड़े होकर उसने उतावली से बच्चे को जैसे छीनकर खींच लिया और बराबर वाले साथी को डपट कर कहा, "क्या आँख फाड़े देखता है ? यह नहीं कि सुजनी निकाल कर रखे। अबे वह नई वाली उस ड्रंक में है ।"
जब तक सुजनी निकली तंजेबी कुर्ता खड़ा खड़ा उसे खिलाता रहा । फिर बाकायदा सुजनी बिछ जाने पर कहा, "तो किशनजी, थक गये होंगे, अब लेट जाओ । ला बे पंखा ला ।” बालक लेट गया और दसों जने आस-पास घिर कर उसे एकटक निहारने लगे । सब उसे दिखाकर तरह-तरह के मुँह बनाते और आवाजें निकालते थे ।
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अन्त में बालक ने भी शायद अपना कर्तव्य जानकर मुँह बनाया और आवाज निकालनी शुरू की ।
तंजेबी कुर्ते ने उस समय अपना पूरा कौशल लगा दिया । मनाया, फुसलाया, डाटा, धमकाया, हिलाया - डुलाया और अन्त में कहा, "तो जा बे बदमाश । जा वहीं माँ के पास मर । लो जी, लेना ।"
किशोरिका कुलवधू ने सुना और पीछे की ओर हाथ बढ़ाकर सीधे उन हाथों से जिशु को ले लिया । धन्यता उस माँ के चेहरे पर लिखी थी। अपनी सन्तान पर बरसते हुए स्नेह को देखकर मन की गदगदता उसके मुख पर छिपाये न छिप रही थी ।