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जनता में
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बच्चे को हवा करने लगा। एक बोला, “भाई, खिड़की बन्द करो, खिड़की ।”
झटपट दोनों तीनों चारों खिड़कियाँ बन्द कर दी गईं। दूसरे ने कहा, “मैं बताऊँ एक बात । यह हमारे किशन जी हैं किशन जी !"
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"अबे हट! तुझे कुछ पता भी है। बता, पैर में पैंजनियाँ कहाँ हैं ? नहीं रामजी हैं, रामजी ।"
"तो क्या हुआ ?” उसने कहा, "अगले स्टेशन पर पैंजनियाँ मिल न जायेंगी । हम तो किशन जी बनायेंगे । और मोर के पंख वहाँ मिलते नहीं हैं, चुनार स्टेशन पर बस पूरे किशन हो गये कि नहीं ?"
"अबे
बदमाश, नाक तोड़ेगा क्या ? अच्छा किशन जी है जो नाक तोड़ दे रहा है ।" कहते हुए पहले आदमी ने बालक को और ऊपर किया और अपने माथे पर बिठा लिया । रसेल इस वक्त मुझ से छूट गया, कारण,
सामने इन्सान मिला हुआ था । बच्चा ऐन मेरी आँखों की सीध में था । दसों की आँखें उस पर थीं । यानी एक मेरी भी । जो बालक को ऊपर करके सिर पर लिये था उसे स्वयं बच्चे को आँखों से देखने की आवश्यकता न थी । अपने समूचेपन से वह तो उसे देख रहा था । देखने में दूरी है । वह उसे पाये हुए थे । अब हो सकता है कि यथार्थ कृष्ण स्थितप्रज्ञ हों अथवा कि न भी हों । लेकिन यह नकली कृष्ण यथार्थ स्थितप्रज्ञ निकले । वह उसी तरह विस्मित थे और न दुःखी न सुखी ।
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“अबे श्र उल्लू ! जो ऊपर से उसने नहला दिया तो - " “तो उल्लू यह खुद हुआ कि मैं ? नहा के भाई मैं तो ठण्डा हो