________________
जनता में
१७१
जाने-अनजाने केन्द्रित और फौजी होता जायगा । यहाँ तक कि डिक्टेटर
"अबे ो उल्लू के पटठे !" यह सुना और साथ ही जोर का एक चटाखा । "ओ बे मरदूद ! चलता है कि नहीं । पत्ता चल !"
दुनिया की हुकूमत में सिर उठाया और देखा कि पार की बेंच पर बैठे एक पहलवान महाशय तरह-तरह के मुँह बना रहे हैं और ताश की बाजी में अपना पत्ता छोड़ने का उन्हें बिल्कुल ध्यान नहीं है। “अबे ओ ! पागल की दम । तुझ पे जिन्न तो नहीं चढ़ा है।"
गगल की दुम । तुझ प जिन्न कहने के साथ एक साथी ने उसकी जाँघ पर जोर का थप्पड़ दिया और उसके चिकोटी भरी।
"मर कम्बख्त" हमारे पहलवान ने कहा ।" "देख तो-"
कहकर उसने मुँह को ऐसा सिकोड़ा कि थूथनी की शक्ल बन आई । थोड़ी देर मुंह उस हालत में रख कर यकायक उसे इस कदर फाड़ा कि हलक के छेद और ऊपर लटका टेंटुआ दीख आया । कुल मिलाकर मुंह अब एक भिट बन गया। समझ न आया कि यह क्या माजरा है।
कि फिर साथियों का ध्यान बँटा । अब तो ताश की बाजी बिछी-की-बिछी रह गई और सब एकटक से उस बालक की ओर देख उठे जो माँ के कन्धे से लगा उनको निहार रहा था। मैंने देखा कि उनकी आँखें एक अलौकिक विस्मय और तृष्णा से खिल आई हैं। एक आनन्द और उत्कण्ठा से चमक रही हैं।
अब होता क्या है कि वे दस-के-दस आदमी बालक की तरह विह्वल आँखों से देखते और तरह-तरह के मुँह बनाने शुरू करते