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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] लाला साहब ने लोटा ही उसके मुंह से लगाया। पर वहाँ से मुँह हटाकर बालक ने कहा, "ब्बो !"
“पी ले ! पीता क्यों नहीं ?" बालक ने सिर हिलाया, हाथ फैलाया और कहा "ब्बो !" "क्या लेगा ?" "ब्बो !"
बालक के उंगली के इशारे से मैं अपना दोष समझ गया । मेरी डलिया में बैठी कुछ हरी ककड़ियाँ अवगुण्ठन में से झाँक करके बालक को निमन्त्रण देने लग गई थीं। उसी त्रुटि की ओर उस बालक का ध्यान गया था। लखनऊ की ककड़ियाँ मजनूं की पसलियाँ नहीं होती, लैला की उँगलियाँ होती हैं। अपने दोषमार्जन में लैला की दो मुलायम उँगलियाँ निकालकर बच्चे की ओर बढ़ाई और बाकी को फिर पर्दे में चुप बन्द कर दिया।
लालाजी ने कहा, "जी नहीं, जी नहीं।"
लेकिन बच्चे ने विस्मित आँखों से देखा और फिर एक को ऐसी सफाई से उड़ाया कि कब मेरे हाथ से निकल कर वह उसके मुँह में जा पहुँची, मुझे पता ही न लगा । दूसरी ककड़ी वहीं लालाजी की गोद में छोड़ मैंने रसेल महाशय को सीधा किया और उसके बेतार को लिया।
केन्द्रित होते जाने से अधिकार विनाश को रोकता है। समय है कि शासन के विकेन्द्रीकरण की दिशा में अब सोचा जाय । दुनिया की एक हुकूमत अपने आप में ही कोई ऊँची बात नहीं है । देखना होगा कि वह नैतिक है या क्या । नैतिक शासन व्यवस्था में विकेन्द्रित होगा । यदि आधार उसका नैतिक न होगा तो शासन