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१६८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] कमर लपेटे थे। पर दोनों के बदन पर था नफीस चुन्नट किया तंजेब का कुर्ता; अन्दर जाली की बनियान, मखमली काली किनारे की घुटनों तक बँधी धोती, सिर घोट और आँखों में सुरमा। शनैःशनैः श्राविष्कृत हुआ कि जगह की हद नहीं है; क्योंकि वह बाहर नहीं, दिल में होती है । यह भी कि गाली-गलौज सामयिक स्वार्थ की भाषा है, सहज भाषा समझौता है । जगह हो गई है, गालियाँ थम गई हैं और यह प्रचार को ठेठ अकिंचन मनुष्यता भी डिब्बे के कुटुम्ब का भाग बन गई है। ___एक दो स्टेशन जा न पाये थे कि उनकी ताश की चौकड़ी जम गई । बाकी सुलफे की चिलम घुमाने लगे और आपस में चिकोटियाँ काट तरह-तरह की आवाजें पैदा करके अपना मनोविनोद करने लगे। जिन्दगी का ज्वार किनारे के अभाव में वहीं तरफ-तरफ से उनमें से राह बनाकर फूटा आ रहा था।
___ उनके उभरे हुए पुढे, कइयों के टूटे और फूले हुए कान, मैले तन पर उससे मैला लिवास, उस्तरे से साफ उघड़ी टाँगें, आँखों में सुरमा और गले में ताबीज,-जी नहीं, सब मिला कर मुझको कुछ अच्छा नहीं लग रहा था । तीसरा दर्जा एक अनुभव है। अनुभव मुझे प्रिय है । लोग म्यूजियम बनाते हैं। बेजान म्यूजियम से यह जो जानदार म्यूजियम है, तीसरा दर्जा, क्या ज्यादा कीमती नहीं है ? यहाँ ज्ञान ज्यादा है, वैचित्र्य ज्यादा है। अनुभूति पास हो तो उसका सामान ज्यादा है । लेकिन अच्छाई भी शायद बुरी हो सकती है। मेरा मन अप्रिय विचारों का शिकार हो रहा था। वे लोग जिनके बदन से अधिक वाणी उघड़ी थी, जिन्हें लिहाज नहीं, लज्जा नहीं।...और मैं अपने कोने में सिमटा अंग्रेजी किताब में से तरह