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१५४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] कहेंगे । और पालोगी कैसे ? अपना करके पालोगी। यह थोड़े ही कहोगी, दूसरे का है।"
"वाह !" “वाह क्या ?"
"अभी ब्याह को कितने दिन हुए हैं ?-" करुणा ने कहा, और उसने अपना अँगूठा धरती में गाड़ लिया, ओठ चबा लिए, आँखें फँपा ली, और एकदम झेपी भी, और खिझलाई भी, लजाई भी और......और ललचाई भी!
"ओह, सो बात ! कुछ नहीं।"-प्रमोद ने हँसकर कहा । "लोग......" "लोग मुझे ही तो कहेंगे, तुम्हें क्या कहेंगे!"
इस पैनी हँसी पर प्रमोद के हाथ को झटका मिला, और कानों को मिला, "चलो-हटो!"
“करुणा, हमें या तुम्हें कुछ कहकर लोग अपने को बहला लें तो इसमें अपना क्या हर्ज ? कहने दो, जो कहें, पर हम तो एकदूसरे को जानते हैं।" _ "मेरा तो मरण हो जायगा।"
"मरण-वरन कुछ नहीं । बड़ा पुण्य होगा। लोग कह-कहकर खुश होंगे। हम भी सुन-सुनकर खुश होंगे। क्यों, होंगे न ? जरूर होंगे। और इस बात पर खुश होंगे कि देखो हमारे कारण इन्हें कैसी खुशी होती है !"
करुणा खुश क्यों नहीं होगी ? जब पति का विश्वास और पति का प्रेम उस पर है, तो किस बात से वह खुश नहीं हो सकती ? ___इधर ये बातें चल रही थीं, उधर नीचे आँगन में रधिया माजी से बातें करने में लगी थी।