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दिल्ली में
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गलियाँ, जो सपाट चिकनी नहीं हैं, जो संकरी और टेढ़ी-मेढ़ी हैं, जैसे शरीर की रक्तवाहिनी नसें । वह गलियाँ, जिनमें दिल्ली की वास्तविकता और दिल्ली का अँधेरा निवास करता है।
अगले दिन प्रमोद ने अकेले गलियों में सैर करने की सोची । सबेरा है। सूरज निकलने में देर है । झुटपुटा चाँदना हो चला है । तभी घर से निकले ।
राह में झाडू देते मेहतर मिले, और जमना जाते स्नानार्थी । इन स्नानार्थियों में पुरुषों से स्त्रियों की तादाद चौगुनी होगी। स्त्रियों को पुरुषों से पुण्य की चिन्ता भी चौगुनी है ।
तब वह एक गली में जाने को मुड़ गए । जहाँ चौरस्ता मिला, वहाँ सबसे तंग रास्ते को पकड़ लिया; जहाँ दो रास्ते मिले, वहीं जो सँकरा था, उस पर चल दिए। इस तरह भीड़ पर भीड़, मोड़ पर - मोड़ और तब एक गली में पहुँचे । मुश्किल से बराबर-बराबर दो-दो आदमियों के जाने की जगह होगी । दोनों ओर तीन-चारपाँच मंजिलों के मकान सटे हुए खड़े हैं, जिन्होंने शर्त लगा रक्खी है, यहाँ न धूप को आने देंगे और न हवा को । इसी गली में चल रहे हैं कि फिर एक मोड़ आया। मुड़े - यह क्या ?
जैसी कागज रखने की तारों की लम्बी टोकरी-सी होती है, वैसी ही एक यहाँ रक्खी है। गुदगुदे गढ़ेले बिछे हैं, नन्हें-नन्हें दो-तीन - चार तकिए इधर उधर रक्खे हैं, और इन सबके बीच में है छोटा-सा बच्चा !
बच्चा बिल्कुल नन्हा सा है । लाल-लाल कोंपल- सी पलकें हैं, आँखें, दिवले सी, श्रस्मान में मानो परमात्मा को पहचान रही हैं, और हाथ और पैर कैसे रुई से मुलायम, घूम-घूमकर और मचलमचलकर उस परमात्मा को खेलने को बुला रहे हैं ।