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जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग]
सबेरे सैर को जा रहे हैं। बग्घी को ठेलते जाते हैं। उसमें दूकान से खरीदा हुआ लल्लू खूब अच्छे कपड़े पहिने तकियों-गहों पर सो रहा है । बड़ा नफीस एक तौलिया उसे उढ़ाया हुआ है।
और बग्घी खूब खिलौनों से सज रही है। उसके पीछे एफ० ए० पास प्रवीण, चुस्त पोशाक में कसा हुआ, बाकायदा आ रहा है।
रास्ते में मिले बाबू हेमचन्द्र, बैंक के मैनेजर । कहने लगे, "बाबूजी यह क्या ?"
विनोद ने कहा, "इस तरह कसरत बड़ी अच्छी होती है। लोग यह करते हैं, वह करते हैं । इस तरह मुफ्त में कसरत हो जाती है, यह किसी को पता नहीं।"
मैनेजर बाबू सुनते हुए आगे बढ़ गये ।
फिर मिले बाबू बसंतलाल, हैडक्लर्क,...आफिस । बोले, "बाबू साहब, यह क्या तमाशा आप रोज़ करते हैं ?
विनोद बोला, “यह तमाशा नहीं है, कसरत का तरीका है। मैं कितना मजबूत हो गया हूँ, देखिए । यों तो दुनिया तमाशा है।"
इस तरह लोग रास्ते में छेड़-छाड़ करते ही हैं। विनोद भी उसमें भाग ले लेता है। पहले विनोद के इस व्यवहार के सम्बन्ध में लोगों के मन में उत्सुकता थी, सहानुभूति भी। लेकिन यह निकला विनोद का नित्य का नियमित कर्म । तब लोग उस बारे में नितान्त उदासीन और निरपेक्ष होने लगे और जब-तब इस चलितमस्तिष्क व्यक्ति को छेड़-छाड़ कर कुछ तमाशे का आनन्द उठाने लगे। जब छेड़ लोगों की जरा पैनी हो जाती है, तो विनोद कहता है, "आप लोग ऐसा समझते हैं, जैसे मैं पागल हूँ। मैं पागल थोड़ा ही हूँ। मैं क्या जानता नहीं, पागल क्या होता है।" इतना