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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] लेकिन बालक की नन्ही-सी जान और नन्हा-सा पेट था। अच्छी हालत में पाव डेढ़ पाव दूध पेट में पहुँचता होगा। अब जो गोलियों और सूखी दवाओं के अलावा सोल्यूशन-मिक्चर और काढ़ों का सेरों की तोल का वजन उसके पेट में रोजाना पहुँचाया जाने लगा, वह बेचारे से कैसे मिलता ? __बालक की अपार व्यथा का हम क्या जिक्र करें ? और क्या माँ-बाप के जी का हाल सुनायें ? । __नहीं; तब सुनायेंगे जब किताब लिखने का अवकाश होगा । उस समय आपको भी तैयार हो जाने के लिए कहेंगे।
अभी केवल सार अंश कहेंगे। वह यह कि बालक रात को ठंडा हो गया।
तब रात अँधेरी थी, हवा भी थी, बूंदा-बांदी भी होने लग गई थी। सर्दी कड़ाके की पड़ रही थी। और उस समय विनोद को फुर्सत कम थी, क्योंकि फ्रीस चुकती कराके बिदा होने के लिए कुछ डाक्टरादि अवशेष थे।
८: जमना जाकर निबट-निबटा लिया है। अब हँसना चाहता है। आंतरिक वेग से चुपचाप रोती हुई सुनयना से कह आया है"छिः, रोती हो ? देखो, मैं कहीं रोता हूँ ? वह चाँद मेरा बेटा नहीं था ? पर मैं तो नहीं रोता ।रोया-धोया नहीं करते।" इतना कहकर वह वहाँ फिर ठैर न सका। क्योंकि चिल्लाकर अगर यहीं रो पड़ेगा, तो ठीक नहीं होगा । वहाँ से भाग कर आया, और बड़े जोर से दोनों हाथों से ढक कर औंधे मुँह खाट पर गिर पड़ा, और फूटफूटकर रोने लगा । लेकिन अब बड़ी युक्ति से मन को करी बना कर बैठक में कुर्सी पर चुप बैठा है। चाहता है-हतूं।