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१३८ जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] बोल रहा है । लोग हँस रहे हैं, बोल रहे हैं, इधर-उधर जा रहे हैं। सब कुछ खिल उठा है।
लेकिन विनोद एकचित्त होकर भी अब तक इन इन्साइक्लोपीडिया में से जो कुछ देखना है, नहीं देख पाया । देखता है, और नोट करता है, फिर आगे पढ़ने लगता है।
धनीचन्द वकील ने इन मोटे पोथों को पहचानकर कहा, "विनोद बाबू, यह क्या कर रहे हो ? इतना स्टडी करोगे ?"
विनोद ने कहा, "कुछ नहीं । यों ही देखता था।"
ऐडवोकेट कुबेरप्रसाद ने कहा, "विनोदभूषण, क्या कोई बड़ा पेचीदा केस है ?"
विनोद ने जरा मुंह ऊपर उठाया, जैसे इस प्रश्न करने के कष्ट उठाने की कृपा के प्रति आभार प्रदर्शित किया हो, तनिक मुस्कराया, और फिर सिर झुकाकर पढ़ने लगा।
थोड़ी देर में मवकिलों ने श्रा घेरा। मुन्शीजी कुर्सी के पास आकर हाजरी में खड़े हो गये।
लेकिन जो उन लोगों ने विनोदभूषण के खुद ध्यान बँटने की थोड़ी देर आशा और प्रतीक्षा की, वह पूरी नहीं हुई। मुन्शी ने कहा, "बाबूजी!" ___ विनोद ने मुंह उठाया। सालिगराम, नत्थनलाल, परसादीमल, देवीसहाय और मन्सासिंह, सब-के-सब, अपने कागजों के साथ चौकस बैठे थे। उनकी अभ्यर्थना करके विनोद ने मुन्शीजी को वकील धनीचन्दजी को बुलाने की आज्ञा दी। उन लोगों से कहा, “देखिए, आज आप लोग मुझे माफ करेंगे। मेरे सिर में दर्द है । लेकिन बाबू धनीचन्द मुझ से भी अच्छा आपका काम करेंगे। आप फ्रिक्र बिलकुल न करें।"