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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
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“ १५ कोस दूर गाँव में ।"
" तू भाग आया ?" "हाँ ।" "क्यों ?"
" मेरे कई छोटे भाई-बहन हैं, सो भाग आया । वहाँ काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था। माँ भूखी रहती थी और रोती थी । सो भाग आया । एक साथी और था । उसी गाँव का था, मुझसे बड़ा । दोनों साथ यहाँ आये । वह अब नहीं है ।"
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"कहाँ गया ?”
" मर गया ।"
इस जरा-सी उम्र में ही इसकी मौत से पहचान हो गई ! मुझे अचरज हुआ, दर्द हुआ, पूछा, "मर गया ?”
?"
“हाँ, साहब ने मारा, मर गया ।"
" अच्छा हमारे साथ चल ।”
वह साथ चल दिया । लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुँचे ।
" वकील साहब !”
वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतरकर आये । काश्मीरी दोशाला लपेटे थे, मोजे चढ़े पैरों में चप्पल थी । स्वर में हल्की-सी ॐ झलाहट थी, कुछ लापर्वाही थी ।
"श्रो हो, फिर आप ! कहिए ?"
" आपको नौकर की जरूरत थी न ? – देखिए, यह लड़का है ।" “कहाँ से लाये ? — इसे आप जानते हैं ?" " जानता हूँ - यह बेईमान नहीं हो सकता । "