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________________ जैनधर्म का प्राण चिन्तन का और दूसरा जीवन-शोवन का। यहॉ एक बात खास उल्लेखनीय है और वह यह कि वैदिक या बौद्ध दर्शन की कोई भी परम्परा लो और उसकी जैन दर्शन के साथ तुलना करो तो एक बात स्पष्ट प्रतीत होगी कि इन सब परम्पराओ मे जो मतभेद है वह दो बातो को लेकर है एक तो जगत, जीव और ईश्वर के स्वरूप को लेकर तथा दूसरा आचार के स्थूल एव बाह्य विधिविधान एव स्थूल रहन-सहन को लेकर । परन्तु आर्य दर्शन की प्रत्येक परम्परा में जीवन-शोधन-विषयक मौलिक प्रश्न तथा उनके उत्तरों मे तनिक भी मतभेद नही है । कोई ईश्वर माने या न माने, कोई प्रकृतिवादी हो या परमाणुवादी, कोई आत्मभेद मानता हो या आत्मा का एकत्व स्वीकार करता हो, कोई आत्मा को व्यापक और नित्य माने अथवा उससे उल्टा माने, इसी प्रकार कोई यज्ञयाग द्वारा भक्ति पर भार दे या कोई अधिक कठोर नियमो का अवलम्बन लेकर त्याग पर भार दे,--परन्तु प्रत्येक परम्परा मे इतने प्रश्न एक-से है दुख है या नहीं ? हो तो उसका कारण क्या है ? उस कारण का नाश शक्य है ? और शक्य हो तो वह किस प्रकार ? अन्तिम साध्य क्या होना चाहिए? इन प्रश्नो के उत्तर भी प्रत्येक परम्परा मे एक-से ही है। शब्दभेद हो सकता है, मक्षेप या विस्तार हो सकता है, परन्तु प्रत्येक का उत्तर यही है कि अविद्या और तृष्णा दुख के कारण है। उनका नाश सम्भव है । विद्या से तथा तृष्णाछेद द्वारा दुख के कारणो का नाश होते ही दुख स्वयमेव नष्ट होता है, और यही जीवन का मुख्य साध्य है । आर्य दर्शनो की परम्पराएँ जीवन-शोधन के मौलिक विचार के बारे मे तथा उसके नियमो के बारे मे सर्वथा एकमत है । अतः यहाँ जैन दर्शन के बारे में कुछ भी कहना हो तो मुख्य रुप से उसकी जीवन-शोधन की मीमासा का ही सक्षेप मे कथन करना अधिक प्रासगिक है। __जीवनशोध की जैन प्रक्रिया जैन दर्शन का कहना है कि आत्मा स्वाभाविक रूप से शुद्ध और सच्चिदानन्दरूप है । उसमे जो अशुद्धि, विकार या दुखरूपता दिखाई देती है वह अज्ञान और मोह के अनादि प्रवाह के कारण है । अज्ञान को कम करने और उसका सर्वथा नाश करने तथा मोह का विलय करने के लिए जैन दर्शन
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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