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जनधर्म का प्राण
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किया, परन्तु आत्मतत्त्व के बारे मे तो उसकी मान्यता उपर्युक्त तीनों विचारप्रवाहो से भिन्न ही थी । वह मानता था कि देहभेद से आत्मा भिन्न है, परन्तु वे सभी आत्मा देशदृष्टि से व्यापक नही है तथा केवल कूटस्थ भी नही है । वह ऐसा मानता था कि जैसे बाह्य विश्व परिवर्तनशील है वैसे आत्मा भी परिणामी होने से सतत परिवर्तनशील है । आत्मतत्त्व सकोचविस्तारशील भी है और इसीलिए वह देहपरिमाण है ।
यह चोथा विचारप्रवाह ही जैन तत्त्वज्ञान का प्राचीन मूल है । भगवान महावीर के पहले बहुत समय से यह विचारप्रवाह चला आ रहा था और वह अपने ढंग से विकास साधता तथा स्थिर होता जा रहा था। आज इस चौथे विचारप्रवाह का जो स्पष्ट, विकसित और स्थिरं रूप हमे उपलब्ध प्राचीन या अर्वाचीन जैन शास्त्रो मे दृष्टिगोचर होता है वह अधिकाशतः भगवान महावीर के चिन्तन का परिणाम है। जैन मन की श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दो मुख्य शाखाए है । दोनो का साहित्य अलग-अलग है, परन्तु जैन तत्त्वज्ञान का जो स्वरूप स्थिर हुआ है वह बिना तनिक भी परिवर्तन के एक-सा ही रहा है । यहाँ एक खास बात उल्लेखनीय है और वह यह कि वैदिक और बौद्ध मत मे अनेक शाखा प्रशाखाए हुई है । उनमे से कई तो एक-दूसरे से बिलकुल विरोधी मन्तव्य भी रखती है। इन सब भेदो मे विशेषता यह है कि वैदिक एव बौद्ध मत की सभी शाखाओं मे आचारविषयक मतभेद के अतिरिक्त तत्त्वचिन्तन के बारे मे कुछ-न-कुछ मतभेद पाया जाता है, जबकि जैन मत के सभी भेद-प्रभेद केवल आचारभेद पर आधारित है; उनमे तत्त्वचिन्तन के बारे मे कोई मौलिक मतभेद अब तक देखा-सुना नही गया । केवल आर्य तत्त्वचिन्तन के इतिहास मे ही नही, परन्तु मानवीय तत्त्व- चिन्तन के समग्र इतिहास मे यह एक ही ऐसा दृष्टात है कि इतने लम्बे समय के विशिष्ट इतिहास के बावजूद भी जिसके तत्त्वचिन्तन का प्रवाह मौलिक रूप से अखण्डित ही रहा हो ।
पौरस्त्य और पाश्चात्य तत्वज्ञान की प्रकृति की तुलना
तत्त्वज्ञान पौरस्त्य हो या पाश्चात्य, सभी के इतिहास मे हम देखते है कि यह केवल जगत, जीव और ईश्वर के स्वरूपचिन्तन मे ही परिसमाप्त