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जैनधर्म का प्राण
अब तक नीच से ऊँच तक के वर्गों मे निवर्तन-धर्म की छाया मे विकास पानेवाले विविध तपोनुष्ठान, विविध ध्यान-मार्ग और नानाविध त्यागमय आचारो का इतना अधिक प्रभाव फैलने लगा था कि फिर एक बार महावीर और बुद्ध के समय मे प्रवर्तक और निवर्तक-धर्म के बीच प्रबल विरोध की लहर उठी, जिसका सबूत हम जैन-बौद्ध वाङमय तथा समकालीन ब्राह्मण वाड मय में पाते है। तथागत बुद्ध ऐसे पक्व विचारक और दृढ थे कि जिन्होने किसी भी तरह से अपने निवर्तक-धर्म मे प्रवर्तक-धर्म के आधारभूत मन्तव्यो और शास्त्रों को आश्रय नही दिया। दीर्घ तपस्वी 'महावीर भी ऐसे ही कट्टर निवर्तक-धर्मी थे। अतएव हम देखते है कि पहले से आज तक जैन और बौद्ध सम्प्रदाय मे अनेक वेदानुयायी विद्वान् ब्राह्मण दीक्षित हुए, फिर भी उन्होने जैन और बौद्ध वाडमय मे वेद के प्रामाण्यस्थापन का न कोई प्रयत्न किया और न किसी ब्राह्मणग्रन्थविहित यज्ञयागादि कर्मकाण्ड को मान्य रखा ।
निवर्तक-धर्म के मन्तव्य और आचार शताब्दियो ही नही बल्कि सहस्राब्दियो पहले से लेकर धीरे-धीरे निवर्तक-धर्म के अङ्ग-प्रत्यङ्गरूप जिन अनेक मन्तव्यो और आचारो का महावीर-बुद्ध तक के समय मे विकास हो चुका था वे सक्षेप मे ये है :
१. आत्मशुद्धि ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है, न कि ऐहिक या पारलौकिक किसी भी पद का महत्त्व ।
२. इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक आध्यात्मिक मोह, अविद्या और तज्जन्य तृष्णा का मूलोच्छेद करना।
३. इसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान और उसके द्वारा सारे जीवनव्यवहार को पूर्ण निस्तृष्ण बनाना। इसके लिये शारीरिक, मानसिक, वाचिक विविध तपस्याओ का तथा नाना प्रकार के ध्यान, योग-मार्ग का अनुसरण और तीन-चार या पाँच महाव्रतो का यावज्जीवन अनुष्ठान ।
४. किसी भी आध्यात्मिक अनुभववाले मनुष्य के द्वारा किसी भी भाषा में कहे गये आध्यात्मिक वर्णनवाले वचनो को ही प्रमाण रूप से