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जैनधर्म का प्राण
ऊपर की चर्चा से यह तो अपने-आप विदित हो जाता है कि पाश्र्वापत्यिक निर्ग्रन्थ-परपरा मे दीक्षा लेनेवाले ज्ञातपुत्र महावीर ने खुद भी शुरू मे चार ही महाव्रत धारण किये थे, पर साम्प्रदायिक स्थिति देखकर उन्होंने उस विषय मे कभी-न-कभी सुधार किया । इस सुधार के विरुद्ध पुरानी 'निर्ग्रन्थ-परपरा मे कैसी चर्चा या तर्क-वितर्क होते थे इसका आभास हमें उत्तराध्ययन के केशि-गौतम सवाद से मिल जाता है, जिसमे कहा गया है कि कुछ पापित्यिक निर्ग्रन्थो मे ऐसा वितर्क होने लगा कि जब पार्श्वनाथ और महावीर का ध्येय एकमात्र मोक्ष ही है तब दोनो के महाव्रत-विषयक उपदेशो मे अन्तर क्यो ?' इस उधेड-बुन को केशी ने गौतम के सामने रखा और गौतम ने इसका खुलासा किया। केशी प्रसन्न हुए और महावीर के शासन को उन्होने मान लिया। इतनी चर्चा से हम निम्नलिखित नतीजे पर सरलता से आ सकते है
१. महावीर के पहले, कम-से-कम पार्श्वनाथ से लेकर निर्ग्रन्थ-परपरा मे चार महाव्रतो की ही प्रथा थी, जिसको भ० महावीर ने कभी-न-कभी बदला और पॉच महाव्रत रूप में विकसित किया। वही विकसित रूप आज तक के सभी जैन फिरको मे निर्विवादरूप से मान्य है और चार महाव्रत की पुरानी प्रथा केवल ग्रन्थो मे ही सुरक्षित है।
२. खुद बुद्ध और उनके समकालीन या उत्तरकालीन सभी बौद्ध भिक्षु निर्ग्रन्थ-परपरा को एकमात्र चतुर्महाव्रतयुक्त ही समझते थे और महावीर के पचमहाव्रतसबधी आतरिक सुधार से वे परिचित न थे। जो एक बार बुद्ध ने कहा और जो सामान्य जनता में प्रसिद्धि थी उसीको वे अपनी रचनाओ मे दोहराते गए।
बुद्ध ने अपने सघ के लिए पॉच शील या व्रत मुख्य बतलाए है, जो सख्या की दृष्टि से तो निर्ग्रन्थ परपरा के यमो के साथ मिलते है, पर दोनों मे थोड़ा अन्तर है । अन्तर यह है कि निर्ग्रन्थ-परपरा मे अपरिग्रह पचम व्रत है, जबकि बौद्ध परपरा मे मद्यादि का त्याग पाँचवां शील है।
यद्यपि बौद्धग्रन्थो मे बार-बार चतुर्याम का निर्देश आता है, पर मूल
१. उत्तरा० २३. ११-१३, २३-२७, इत्यादि ।