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जैनधर्म का प्राग
महावीर का पीछे हुआ है। इस तरह महावीर की अपेक्षा बुद्ध कुछ वृद्ध अवश्य थे। इतना ही नहीं, पर महावीर ने स्वतत्र रूप से धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया इसके पहले ही बुद्ध ने अपना मार्ग स्थापित करना शुरू कर दिया था । बुद्ध को अपने मार्ग मे नए-नए अनुयायियों को जुटाकर ही वल बढाना था, जबकि महावीर को नए अनुयायियो को बनाने के सिवाय पार्श्व के पुराने अनुयायियो को भी अपने प्रभाव मे और आसपास जमाए रखना था। तत्कालीन अन्य सब पन्थो के मतव्यो की पूरी चिकित्सा या बिना खडन किए बुद्ध अपनी सघ-रचना मे सफल नहीं हो सकते थे, जबकि महावीर का प्रश्न कुछ निराला था, क्योकि अपने चारित्र व तेजोबल से पार्श्वनाथ के तत्कालीन अनुयायियो का मन जीत लेने मात्र से ही वे महावीर के अनुयायी बन ही जाते थे । इसलिए नए-नए अनुयायियों की भरती का सवाल उनके सामने इतना तीव्र न था जितना बुद्ध के सामने था । इसलिए हम देखते है कि बुद्ध का सारा उपदेश दूसरों की आलोचनापूर्वक ही देखा जाता है।
निर्ग्रन्थ-परंपरा का बुद्ध पर प्रभाव बद्ध ने अपना मार्ग शुरू करने के पहले जिन पन्थों को एक-एक करके छोड़ा उनमे एक निर्ग्रन्थ पथ भी आता है । बुद्ध ने अपनी पूवजीवनी का जो हाल कहा है उसको पढ़ने और उसका जैन आगमो मे वर्णित आचारो के साथ मिलान करने से यह नि सदेह रूप से जान पड़ता है कि बुद्ध ने अन्य पन्यो की तरह निर्ग्रन्थ पन्थ में भी ठीक-ठीक जीवन बिताया था, भले ही वह स्वल्पकालीन ही रहा हो । बुद्ध के साधनाकालीन प्रारम्भिक वर्षों मे महावीर ने तो अपना मार्ग शुरू किया ही न था और उस समय पूर्व प्रदेश मे पार्श्वनाथ के सिवाय दूसरा कोई निर्ग्रन्थ पन्थ न था । अतएव सिद्ध है कि बुद्ध ने, थोडे ही समय के लिए क्यों न हो, पर पार्श्वनाथ के निर्ग्रन्थसंप्रदाय का जीवन व्यतीत किया था। यही कारण है कि बुद्ध जब निर्ग्रन्थ
१. वीरसंवत् और जैन कालगणना, 'भारतीय विद्या', तृतीय भाग, पृ० १७७ ।
२. मज्झिम० मु० २६ । प्रो० कोशांबीकृत बुद्धचरित ।