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जैनधर्म का प्राण
सूक्ष्म सव आचार साम्यदृष्टि मूलक अहिंसा के केन्द्र के आसपास ही निर्मित हुआ है। जिस आचार के द्वारा अहिसा की रक्षा और पुष्टि न होती हो ऐसे किसी भी आचार को जैन-परम्परा मान्य नही रखती । यद्यपि सब धार्मिक परम्पराओ ने अहिसा तत्त्व पर न्यूनाधिक भार दिया है, पर जैन-परम्परा , ने उस तत्त्व पर जितना बल दिया है और उसे जितना व्यापक बनाया है उतना बल और उतनी व्यापकता अन्य धर्म-परम्परा देखी मे नही जाती। मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतग, और वनस्पति ही नहीं, बल्कि पार्थिव जलीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओ तक की हिसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने के लिए कहा गया है।
विचार मे साम्य दृष्टि की भावना पर जो भार दिया गया है उसी मे से अनेकान्त दृष्टि या विभज्यवाद का जन्म हुआ है। केवल अपनी दृष्टि या विचार-सरणी को ही पूर्ण अन्तिम सत्य मानकर उसपर आग्रह रखना यह साम्य दृष्टि के लिए घातक है। इसलिए कहा गया है कि दूसरों की दृष्टि का भी उतना ही आदर करना जितना अपनी दृष्टि का । यही साम्य दृष्टि अनेकान्तवाद की भूमिका है। इस भूमिका मे से ही भापाप्रधान स्याद्वाद और विचारप्रधान नयवाद का क्रमश. विकास हुआ है । यह नहीं है कि अन्यान्य परम्पराओं में अनेकान्तदृष्टि का स्थान ही न हो। मीमासक और कपिल दर्शन के उपरात न्यायदर्शन में भी अनेकान्तवाद का स्थान है। बुद्ध भगवान् का विभज्यवाद और मध्यममार्ग भी अनेकान्तदृष्टि के ही फल है, फिर भी जैन-परम्परा ने जैसे अहिंसा पर अत्यधिक भार दिया है वैसे ही उसने अनेकान्तदृष्टि पर भी अत्यधिक भार दिया है। इसलिए जैन्नपरम्परा मे आचार या विचार का कोई भी विषय ऐसा नही है जिसपर अनेकान्तदृष्टि लागू न की गई हो या अनेकान्तदृष्टि की मर्यादा से बाहर हो । यही कारण है कि अन्यान्य परम्पराओ के विद्वानो ने अनेकान्तदृष्टि को मानते हुए भी उसपर स्वतत्र साहित्य रचा नही है, जबकि जैन-परम्परा के विद्वानो ने उसके अगभूत स्याद्वाद, नयवाद आदि के बोधक और समर्थक विपुल स्वतत्र साहित्य का निर्माण किया है।
अहिंसा
हिसा से निवृत्त होना ही अहिसा है। यह विचार तबतक पूरा समझ मे