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जैनधर्म का प्राण
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और धर्म की पोषक अनेक शाखा प्रशाखाएँ थी, जिनमे से कोई बाह्य तप पर, कोई ध्यान पर, तो कोई मात्र चित्त-शुद्धि या असगता पर अधिक बल देती थी । पर साम्य या समता सबका समान ध्येय था ।
जिस शाखा ने साम्यसिद्धिमूलक अहिंसा को सिद्ध करने के लिए अपरिग्रह पर अधिक भार दिया और उसीमेसे अगार-गृह-ग्रन्थ या परिग्रह बधन के त्याग पर अधिक भार दिया और कहा कि जबतक परिवार एव परिग्रह का बधन हो तबतक कभी पूर्ण अहिसा या पूर्ण साम्य सिद्ध नही हो सकता, श्रमणधर्म की वही शाखा निर्ग्रन्थ नाम से प्रसिद्ध हुई । इसके प्रधान प्रवर्तक नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ ही जान पड़ते है ।
वीतरागता का आग्रह
अहिंसा की भावना के साथ-साथ तप और त्याग की भावना अनिवार्य रूप से निर्ग्रन्थ धर्म में ग्रथित तो हो ही गई थी, परन्तु साधको के मन मे यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि बाह्य त्याग पर अधिक भार देने से क्या आत्मशुद्धि या साम्य पूर्णतया सिद्ध होना सभव है ? इसीके उत्तर मे से यह विचार फलित हुआ कि राग-द्वेष आदि मलिन वृत्तियों पर विजय पाना ही मुख्य साध्य है । इस साध्य की सिद्धि जिस अहिंसा, जिस तप या जिस त्याग से न हो सके वह अहिंसा, तप या त्याग कैसा ही क्यो न हो, पर आध्यात्मिक दृष्टि से अनुपयोगी है । इसी विचार के प्रवर्तक 'जिन' कहलाने लगे । ऐसे 'जिन' अनेक हुए है । सच्चक, बुद्ध, गोशालक और महावीर ये सब अपनीअपनी परम्परा में 'जिन' रूप से प्रसिद्ध रहे है, परन्तु आज जिनकथित जैन - 'धर्म कहने से मुख्यतया महावीर के धर्म का ही बोध होता है जो राग-द्वेष के विजय पर ही मुख्यतया भार देता है । धर्म-विकास का इतिहास कहता है कि उत्तरोत्तर उदय मे आनेवाली नई-नई धर्म की अवस्थाओं में उस-उस धर्म की पुरानी अविरोधी अवस्थाओं का समावेश अवश्य रहता है । यही कारण 'है कि जैनधर्म निर्ग्रन्थ धर्म भी है और श्रमण धर्म भी है ।
श्रमणधर्म की साम्यदृष्टि
अब हमें देखना यह है कि श्रमणधर्म की प्राणभूत साम्यभावना का