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जैनधर्म का प्राण
(३) जिस प्रकार अपनी दृष्टि समझाने की धीरज होनी चाहिए उसी प्रकार दूसरे की दृष्टि समझने की भी उतनी ही उदारता और तत्परता होनी चाहिए। दोनो अथवा जितने पहलू जान सके उन सबकी तुलना तथा बलाबल को जाचने की वृत्ति भी होनी चाहिए। इतना ही नही, अपना पक्ष निर्बल अथवा भ्रान्त प्रतीत होने पर उसका त्याग पहले के स्वीकार की अपेक्षा अधिक सुखद माना जाना चाहिए।
(४) कोई भी समग्र सत्य देश, काल अथवा सस्कार से परिमित नही होता । अत सभी पहलुओ को देखने की तथा प्रत्येक पहल मे यदि खण्ड-सत्य ज्ञात हो तो उन सबका समन्वय करने की वृत्ति होनी चाहिए।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ३६-३९),
१४. दर्शन और सम्प्रदाय यह विचार करना उचित होगा कि दर्शन का मतलब क्या समझा जाता है और वस्तुतः उसका मतलब क्या होना चाहिए। इसी तरह यह भी विचारना समुचित होगा कि सम्प्रदाय क्या वस्तु है और उसके साथ दर्शन का सम्बन्ध कैसा रहा है तथा उस साम्प्रदायिक सम्बन्ध के फलस्वरूप दर्शन में क्या गुण-दोष आए है इत्यादि ।
सब कोई सामान्य रूप से यही समझते और मानते आए है कि दर्शन का मतलब है तत्त्व-साक्षात्कार । सभी दार्शनिक अपने-अपने साम्प्रदायिक दर्शन को साक्षात्कार रूप ही मानते आए है । यहा सवाल यह है कि साक्षात्कार किसे कहते है-? इसका जवाब एक ही हो सकता है कि साक्षात्कार वह है जिसमे भ्रम या सन्देह को अवकाश न हो और साक्षात्कार किये गये तत्त्व मे फिर मतभेद या विरोध न हो। अगर दर्शन की उक्त साक्षात्कारात्मक व्याख्या सबको मान्य है तो दूसरा प्रश्न यह होता कि अनेक सम्प्रदायाश्रित विविध दर्शनो मे एक ही तत्त्व के विषय मे इतने नाना मतभेद कैसे और उनमे असमाधेय समझा जानेवाला परस्पर विरोध कैसा ? इस शका का जवाब देने के लिए हमारे पास एक ही रास्ता है कि हम दर्शन शब्द का कुछ और अर्थ समझे । उसका जो साक्षात्कार अर्थ समझा जाता है और जो चिरकाल से शास्त्रो मे भी लिखा मिलता है, वह अर्थ