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जैनधर्म का प्राण
कहें, तो बाह्य जीवन और सामाजिक सब व्यवहारों को देह कहना चाहिए।
धर्म और सस्कृति मे वास्तविक रूप मे कोई अन्तर होना नहीं चाहिए। जो व्यक्ति या जो समाज सस्कृत माना जाता हो, वह यदि धर्म-पराङमुख है, तो फिर जगलीपन से सस्कृति मे विशेषता क्या ? इस तरह वास्तव में मानव-सस्कृति का अर्थ तो धार्मिक या न्याय सम्पन्न जीवन-व्यवहार ही है । परन्तु सामान्य जगत् मे सस्कृति का यह अर्थ नही लिया जाता । लोग सस्कृति से मानवकृत विविध कलाएँ, विविध आविष्कार और विविध विद्याएँ ग्रहण करते है। पर ये कलाएँ, ये आविष्कार, ये विद्याएँ हमेशा मानव-कल्याण की दृष्टि या वृत्ति से ही प्रकट होती है, ऐसा कोई नियम नही है । हम इतिहास से जानते है कि अनेक कलाओ, अनेक आविष्कारो और अनेक विद्याओ के पीछे हमेशा मानव-कल्याण का कोई शुद्ध उद्देश्य नही होता है। फिर भी ये चीजे समाज मे आती है और समाज भी इनका स्वागत पूरे हृदय से करता है । इस तरह हम देखते है और व्यवहार मे पाते है कि जो वस्तु मानवीय बुद्धि और एकाग्र प्रयत्न के द्वारा निर्मित होती है और मानव-समाज को पुराने स्तर से नए स्तर पर लाती है, वह सस्कृति की कोटि मे आती है। इसके साथ शुद्ध धर्म का कोई अनिवार्य सबन्ध हो, ऐसा नियम नही है। यही कारण है कि सस्कृत कही और मानी जानेवाली जातियाँ भी अनेकधा धर्म-पराडमुख पाई जाती है।
(द० औ० चि० ख० १, पृ० ९)
१२. धर्म और नीति के बीच अन्तर जो बन्धन या कर्तव्य भय अथवा स्वार्थमूलक होता है वह नीति, और जो कर्तव्य भय या स्वार्थमूलक नही, परन्तु शुद्ध कर्तव्य के लिए ही होता है और जो कर्तव्य मात्र योग्यता पर अवलम्बित होता है वह धर्म । नीति और धर्मके बीच का यह अन्तर कुछ नगण्य नही है। यदि हम तनिक गहराई से सोचे तो स्पष्ट दिखाई देगा कि नीति समाज के धारण-पोषण के लिए आवश्यक होने पर भी उससे समाज का संशोधन नही होता । सशोधन अर्थात् शुद्धि और शुद्धि यानी सच्चा विकास--यह समझ यदि वास्तविक हो तो ऐसा कहना चाहिए कि वैसा विकास धर्म पर ही आधारित