________________
जैनधर्म का प्राण
गृह्यसूत्र देखना चाहिये तथा शकर-दिग्विजय । हम इस सस्था के समर्थन का इतिहास शतपथ ब्राह्मण, महाभारत तथा पूर्वपक्ष रूप से न्यायभाष्य तक मे पाते है। दूसरी ओर से सन्यास-केन्द्रित सस्था के पक्षपाती सन्यास पर इतना अधिक भार देते थे कि मानो समाज का जीवन-सर्वस्व ही वह हो । ब्राह्मण लोग वेद और वेदाश्रित कर्मकाडो के आश्रय से जीवन व्यतीत करते रहे, जो गृहस्थो के द्वारा गृहस्थाश्रम मे ही सम्भव है । इसलिये वे गृहस्थाश्रम की प्रधानता, गुणवत्ता तथा सर्वोपयोगिता पर भार देते आए। जिनके लिये वेदाश्रित कर्मकाण्डो का जीवन-पथ सीधे तौर से खुला न था और जो विद्या-रुचि तथा धर्म-रुचिवाले भी थे, उन्होने धर्म-जीवन के अन्य द्वार खोले, जिनमे से क्रमश. आरण्यक धर्म, तापस-धर्म, या टैगोर की भाषा मे 'तपोवन' की सस्कृति का विकास हुआ है, जो सन्तसस्कृति का मूल है। ऐसे भी वैदिक ब्राह्मण होते गए जो सन्तसस्कृति के मुख्य स्तम्भ भी माने जाते है । दूसरी तरफ से वेद तथा वेदाश्रित कर्मकाण्डो मे सीधा भाग ले सकने का अधिकार न रखनेवाले अनेक ऐसे ब्राह्मणेतर भी हुए है जिन्होने गृहस्थाश्रम-केन्द्रित धर्म-सस्था को ही प्रधानता दी है। पर इतना निश्चित है कि अन्त मे दोनो सस्थाओं का समन्वय चतुराश्रम के रूप मे ही हुआ है। आज कट्टर कर्मकाण्डी मीमासक ब्राह्मण भी सन्यास की अवगणना कर नही सकता। इसी तरह सन्यास का अत्यन्त पक्षपाती भी गृहस्थाश्रम की उपयोगिता से इन्कार नही कर सकता।
(द० औ० चि० ख० १, पृ० ३८-३९)
९. धर्म और बुद्धि आज तक किसी विचारक ने यह नही कहा कि धर्म का उत्पाद और विकास बुद्धि के सिवाय और भी किसी तत्त्व से हो सकता है । प्रत्येक धर्म-सप्रदाय का इतिहास यही कहता है कि अमुक बुद्धिमान् पुरुषो के द्वारा ही उस धर्म की उत्पत्ति या शुद्धि हुई है। धर्म के इतिहास और उसके सचालक के व्यावहारिक जीवन को देखकर हम केवल एक ही नतीजा निकाल सकते है कि बुद्धितत्त्व ही धर्म का उत्पादक, उसका संशोधक, पोषक और प्रचारक रहा है और रह सकता है।