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जैनधर्म का प्राण
आठ-सौ अथवा हजार वर्ष जितने प्राचीन युग मे अकाम दृष्टि के अनेक प्रयोग होते देखे जाते हैं । उपनिषद् इसी धर्म-दृष्टि का विवरण करते है । जैन, बौद्ध आदि सघो की नीव ही इस दृष्टि पर आधारित है। यह अकाम धर्म-दृष्टि, अन्तरात्म-दृष्टि या धर्म-विकास की दूसरी भूमिका है। इसमे मनुष्य पहले अपने-आपको शुद्ध करने का और साथ ही समग्र विश्व के साथ तादात्म्य साधने का प्रयत्न करता है । इसमे ऐहिक और पारलौकिक किसी स्थूल भोग की इच्छा के लिए आदर है ही नही।
कुटुम्ब और समाज मे रहकर निष्कामता साधी नही जा सकतीइस विचार मे से एकान्तवास और अनगारभाव की वृत्ति बल पकडती है,
और ऐसी वृत्ति ही मानो निष्कामता या वासना-निवृत्ति हो, इस प्रकार की उसकी प्रतिष्ठा जमती है। काम-तृष्णा की निवृत्ति या शुद्धीकरण का स्थान मुख्य रूप से प्रवृत्ति-त्याग ही लेता है, और जीवन जीना मानो एक पाप या शाप हो ऐसी मनोवृत्ति समाज मे प्रवेश पाती है। ऐसे समय पुन अकाम धर्म-दृष्टि का सशोधन होता है। ईशावास्य घोषणा करता है कि समग्र जगत हमारे जैसे चैतन्य से भरापूरा है, अतएव जहाँ जाओगे वहा दूसरे भी भोगी तो है ही। वस्तुभोग कोई मूलगत दोष नही है, वह जीवन के लिए अनिवार्य है। इसलिए दूसरे की सुविधा का ध्यान रखकर जीवन जीओ और किसीके धन की ओर ललचाओ नही । प्राप्तकर्तव्य करते जाओ और जितना जी सको उतना जीओ । ऐसा करने से न तो काम-तृष्णा का बन्धन बाधक होगा और न किसी दूसरे लेप से लिप्त हो सकोगे। सचमुच, ईशावास्य ने निष्काम धर्मदृष्टि का अन्तिम अर्थ बतलाकर मानव-जाति को धर्म-दृष्टि के ऊर्वीकरण की ओर प्रयाण करने मे खूब मदद की है। गीता के भव्य प्रासाद की नीव ईशावास्य की यह सूझ ही है।
महावीर ने तृष्णादोष और उसमे से पैदा होनेवाले दूसरे दोषो को निर्मूल करने की दृष्टि से महती साधना की । बुद्ध ने भी अपने ढंग से वैसी ही साधना की । परन्तु सामान्य समाज ने उसमे से इतना ही अर्थ लिया कि तृष्णा, हिसा, भय आदि दोष दूर करने चाहिए। लोगो की दोषो को दूर करने की वृत्ति ने 'यह मत करो, वह मत करो' ऐसे अनेकविध निवर्तक