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जैनधर्म का प्राण
आचारलक्षी निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि परन्तु आचारलक्षी निश्चय और व्यवहार दृष्टि का निरूपण जुद्दे प्रकार से होता है। जैन दर्शन मोक्ष को परम पुरुषार्थ मानकर उसी की दृष्टि से आचार की व्यवस्था करता है। अतएव जो आचार सीधे तौर से मोक्षलक्षी है वही नैश्चयिक आचार है। इस आचार मे दृष्टिभ्रम और काषायिक वृत्तियों के निर्मूलीकरण मात्र का समावेश होता है। पर व्यावहारिक आचार ऐसा एकरूप नहीं। नैश्चयिक आचार की भूमिका से निष्पन्न भिन्न-भिन्न देश-काल-जाति-स्वभाव-रुचि आदि के अनुसार कभी-कभी परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाले भी आचार व्यावहारिक आचार की कोटि में गिने जाते है। नैश्चयिक आचार की भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यावहारिक आचारो मे से गुजरता है। इस तरह हम देखते है कि आचारगामी नैश्चयिक दृष्टि या व्यावहारिक दृष्टि मुख्यतया मोक्ष पुरुषार्थ की दृष्टि से ही विचार करती है, जब कि तत्त्वनिरूपक निश्चय या व्यवहार दृष्टि केवल जगत के स्वरूप को लक्ष्य मे रखकर ही प्रवृत्त होती है।
तत्त्वलक्षी और आचारलक्षी निश्चय एवं व्यवहारिक दृष्टि के बीच
एक अन्य महत्त्व का अन्तर तत्त्वज्ञान और आचारलक्षी उक्त दोनो नयो मे एक दूसरा भी महत्त्व का अन्तर है, जो ध्यान देने योग्य है। नैश्चयिक-दृष्टिसम्मत तत्त्वो का स्वरूप साधारण जिज्ञासु कभी प्रत्यक्ष कर नही पाते। हम ऐसे किसी व्यक्ति के कथन पर श्रद्धा रखकर ही वैसा स्वरूप मानते है कि जिस व्यक्ति ने तत्त्वस्वरूप का साक्षात्कार किया हो । पर आचार के बारे में ऐसा नहीं है। कोई भी जागरूक साधक अपनी आन्तरिक सत्-असत् वृत्तियों को व उनकी तीव्रता-मन्दता के तारतम्य को प्रत्यक्ष जान सकता है, जब कि अन्य व्यक्ति के लिए पहले व्यक्ति की वत्तियाँ सर्वथा परोक्ष है। नैश्चयिक हो या व्यावहारिक, तत्त्वज्ञान का स्वरूप उस-उस दर्शन के सभी अनुयायियो के लिए एक-सा है तथा समान परिभाषाबद्ध है, पर नैश्चयिक व व्यावहारिक आचार का स्वरूप ऐसा नही । हरएक व्यक्ति का नैश्चयिक आचार उसके लिए प्रत्यक्ष है । इस अल्प विवेचन से मै केवल