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जैनधर्म का प्राण
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रूप से देखती है और अतीत-अनागत को 'सत्' शब्द की अर्थमर्यादा मे से हटा देती है तब उसके द्वारा फलित होनेवाला विश्व का दर्शन ऋजुसूत्र नय है, क्योकि वह अतीत-अनागत के चक्रव्यूह को छोड़कर सिर्फ वर्तमान की सीधी रेखा पर चलता है।
उपर्युक्त तीनो मनोवृत्तियाँ ऐसी है, जो शब्द या शब्द के गुण-धर्मो का आश्रय लिये बिना ही किसी भी वस्तु का चिन्तन करती है। अतएव वे तीनो प्रकार के चिन्तन अर्थनय है। पर ऐसी भी मनोवृत्ति होती है, जो शब्द के गुण-धर्मो का आश्रय लेकर ही अर्थ का विचार करती है। अतएव ऐसी मनोवृत्ति से फलित अर्थचिन्तन शब्दनय कहे जाते है। शाब्दिक लोग ही मुख्यतया शब्द नय के अधिकारी है, क्योकि उन्ही के विविध दृष्टिबिन्दुओ से शब्दनय में विविधता आई है।
जो शाब्दिक सभी शब्दो को अखण्ड अर्थात् अव्युत्पन्न मानते है वे व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद न मानने पर भी लिङ्ग, पुरुष, काल आदि अन्य प्रकार के शब्दधर्मो के भेद के आधार पर अर्थ का वैविध्य बतलाते है । उनका वह अर्थ-भेद का दर्शन शब्दनय या साम्प्रत नय है । प्रत्येक शब्द को व्युत्पत्ति सिद्ध ही माननेवाली मनोवृत्ति से विचार करनेवाले शाब्दिक पर्याय अर्थात् एकार्थक समझे जानेवाले शब्दो के अर्थ मे भी व्युत्पत्तिभेद से भेद बतलाते है। उनका वह शक्र, इन्द्र आदि जैसे पर्याय शब्दो के अर्थभेद का दर्शन समभिरूढ नय कहलाता है। व्युत्पत्ति के भेद से ही नहीं, बल्कि एक ही व्युत्पत्ति से फलित होनेवाले अर्थ की मौजूदगी और गैर-मौजूदगी के भेद के कारण से भी जो दर्शन अर्थभेद मानता है वह एवभूत नय कहलाता है। इन तार्किक छ नयो के अलावा एक नैगम नाम का नय भी है, जिसमे निगम अर्थात् देशरूढि के अनुसार अभेदगामी और भेदगामी सब प्रकार के विचारो का समावेश माना गया है । प्रधानतया ये ही सात नय है, पर किसी एक अश को अर्थात् दृष्टिकोण को अवलम्बित करके प्रवृत्त होनेवाले सब प्रकार के विचार उस-उस अपेक्षा के सूचक नय ही है।
द्रव्याथिक ओर पर्यायाथिक नय शास्त्र मे द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ऐसे दो नय भी प्रसिद्ध है, पर वे