________________
जैनधर्म का प्राण
कारण जो औपाधिक कर्म है। उसके हट जाने पर भी यदि विषमता बनी रही तो फिर मुक्ति ही क्या है ? विषमता का राज्य ससार तक ही परिमित है, आगे नही। इसलिए कर्मवाद के अनुसार यह मानने मे कोई आपत्ति नही कि सभी मुक्त जीव ईश्वर ही है, केवल विश्वास के बल पर यह कहना कि ईश्वर एक ही होना चाहिए उचित नही।
___अपने विघ्न का कारण स्वयं जीव ही इस लोक से या परलोक से सबन्ध रखनेवाले किसी काम मे जब मनुष्य प्रवृत्ति करता है तब यह तो असम्भव ही है कि उसे किसी-न-किसी विघ्न का सामना करना न पडे। मनुष्य को यह विश्वास करना चाहिए कि चाहे मैं जान सकू या नही, लेकिन मेरे विघ्न का भीतरी व असली कारण मुझ में ही होना चाहिए। जिस हृदय-भूमिका पर विघ्न-विषवृक्ष उगता है उसका बीज भी उसी भूमिका मे बोया हुआ होना चाहिए । पवन, पानी आदि बाहरी निमित्तो के समान उस विघ्न-वृक्ष को अकुरित होने मे कदाचित् अन्य कोई व्यक्ति निमित्त हो सकता है, पर वह विघ्न का बीज नहीऐसा विश्वास मनुष्य के बुद्धिनेत्र को स्थिर कर देता है, जिससे वह अडचन के असली कारण को अपने में देखकर न तो उसके लिए दूसरे को कोसता है और न घबड़ाता है।
कर्म-सिद्धान्त के विषय में डा० मेक्समूलर का अभिप्राय कर्म के सिद्धान्त की श्रेष्ठता के संबन्ध मे डा० मेक्समूलर का जो विचार है वह जानने योग्य है। वे कहते है - ___ “यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य-जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पडे कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझ को जो कुछ भोगना पड़ता है वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है तो वह पुराने कर्ज को चुकानेवाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्यत् के लिए नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है, तो उसको भलाई के रास्ते पर