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जैनधर्म का प्राण
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पर, यह था । एक पक्ष ऐसा था जो काम और उसके साधनरूप अर्थ के सिवाय अन्य कोई पुरुषार्थ मानता न था । उसकी दृष्टि में इहलोक ही पुरुषार्थ था । अतएव वह ऐसा कोई कर्मतत्त्व मानने के लिए बाधित न था, जो अच्छे-बुरे जन्मान्तर या परलोक की प्राप्ति करानेवाला हो । यही पक्ष चार्वाक परम्परा के नाम से विख्यात हुआ । पर साथ ही उस अति पुराने युग मे भी ऐसे चितक थे, जो बतलाते थे कि मृत्यु के बाद जन्मान्तर भी है। इतना ही नहीं, बल्कि इस दृश्यमान लोक के अलावा और भी श्रेष्ठ-कनिष्ठ लोक हैं । वे पुनर्जन्म और परलोकवादी कहलाते थे और वे ही पुनर्जन्म और परलोक के कारणरूप से कर्मतत्त्व को स्वीकार करते थे । उनकी दृष्टि यह रही कि अगर कर्म न हो तो जन्म-जन्मान्तर एव इहलोक - परलोक का सबन्ध घट ही नही सकता । अतएव पुनर्जन्म की मान्यता के आधार पर कर्मतत्त्व का स्वीकार आवश्यक है । ये ही कर्मवादी अपने को परलोकवादी तथा आस्तिक कहते थे ।
धर्म, अर्थ और काम को ही माननेवाले प्रवर्तक धर्मवादी पक्ष
कर्मवादियो के मुख्य दो दल रहे । एक तो यह प्रतिपादित करता था कि कर्म का फल जन्मान्तर और परलोक अवश्य है, पर श्रेष्ठ जन्म तथा श्रेष्ठ परलोक के वास्ते कर्म भी श्रेष्ठ ही चाहिए। यह दल परलोकवादी होने से तथा श्रेष्ठलोक, जो स्वर्ग कहलाता है, उसके साधनरूप से धर्म का प्रतिपादन करनेवाला होने से, धर्म-अर्थ-काम ऐसे तीन ही पुरुषार्थों को मानता था । उसकी दृष्टि मे मोक्ष का अलग पुरुषार्थ रूप से स्थान न था । जहाँ कही प्रवर्तकधर्म का उल्लेख आता है, वह सब इसी त्रिपुरुषार्थवादी दल के मन्तव्य का सूचक है । इसका मन्तव्य सक्षेप मे यह है कि धर्म - शुभ कर्म का फल स्वर्ग और अधर्म - अशुभ कर्म का फल नरक आदि है । धर्माधर्म ही पुण्य-पाप तथा अदृष्ट कहलाते है और उन्ही के द्वारा जन्म-जन्मान्तर की चक्रप्रवृत्ति चला करती है, जिसका उच्छेद शक्य नही है । शक्य इतना ही है कि अगर अच्छा लोक और अधिक सुख पाना हो, तो धर्म ही कर्तव्य है । इस मत के अनुसार अधर्म या पाप तो हेय है, पर धर्म या पुण्य हेम नही । यह दल सामाजिक व्यवस्था का समर्थक था, अतएव वह समाजमान्य शिष्ट एवं