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जैनधर्म का प्राण
स्थाओं को प्राप्त है । वे अपने से नीचे की श्रेणिवालो के पूज्य और ऊपर की श्रेणिवालो के पूजक है । इसी से 'गुरु' तत्त्व माने जाते है । अरिहन्त और सिद्ध का आपस मे अन्तर
प्रo - अरिहन्त तथा सिद्ध का आपस मे क्या अन्तर है ?
उ०—सिद्ध शरीररहित अतएव पौद्गलिक सब पर्यायो से परे होते है, पर अरिहन्त ऐसे नही होते । उनके शरीर होता है, इसलिए मोह, अज्ञान आदि नष्ट हो जाने पर भी ये चलने फिरने, बोलने आदि शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाएँ करते रहते है ।
माराश यह है कि ज्ञान चारित्र आदि शक्तियो के विकास की पूर्णता अरिहन्त-सिद्ध दोनो मे बराबर होती है । पर सिद्ध योग ( शारीरिक आदि क्रिया) रहित और अरिहन्त योगसहित होते है । जो पहिले अरिहन्त होते है वे ही शरीर त्यागने के बाद सिद्ध कहलाते है ।
आचार्य आदि का आपस मे अन्तर
प्र० -- आचार्य आदि तीनो का आपस मे क्या अन्तर है ?
उ०- - इसी तरह (अरिहन्त और सिद्ध की भाँति ) आचार्य, उपाध्याय और साधुओ मे साधु के गुण सामान्य रीति से समान होने पर भी साधु की अपेक्षा उपाध्याय और आचार्य मे विशेषता होती है । वह यह कि उपाध्यायपद के लिए सूत्र तथा अर्थ का वास्तविक ज्ञान, पढाने की शक्ति, वचन - मधुरता और चर्चा करने का सामर्थ्य आदि कुछ खास गुण प्राप्त करना जरूरी है, पर साधुपद के लिए इन गुणो की कोई खास जरूरत नही है । इसी तरह आचार्यपद के लिए शासन चलाने की शक्ति गच्छ के हिताहित की जवाबदेही, अति गम्भीरता और देश-काल का विशेष ज्ञान आदि गुण चाहिए। साधुपद के लिए इन गुणों को प्राप्त करना कोई खास जरूरी नही है । साधुपद के लिए जो सत्ताईस गुण जरूरी है वे तो आचार्य और उपाध्याय मे भी होते है, पर इनके अलावा उपाध्याय मे पच्चीस और आचार्य मे छत्तीस गुण होने चाहिए अर्थात् साधुपद की अपेक्षा उपाध्यायपद का महत्त्व अधिक और उपाध्यायपद की अपेक्षा आचार्यपद का महत्व afer है ।