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________________ १२८ जैनधर्म का प्राण जीवनस्पर्शी सम्पूर्ण सयम । इस सयम मे मात्र पापवृत्तियों पर अंकुश रखने का — जैन परिभाषा मे कहे तो आस्रवनिरोध का ही समावेश नही होता, परन्तु वैसे सम्पूर्ण सयम मे श्रद्धा, ज्ञान, क्षमा आदि स्वाभाविक सद्वृत्तियों के विकास का भी समावेग हो जाता है । अत पहली व्याख्या 'अनुसार ब्रह्मचर्य यानी काम-क्रोधादि प्रत्येक असद्वृत्ति को जीवन मे उत्पन्न होने से रोककर, श्रद्धा, चेतना, निर्भयता आदि सद्वृत्तियो को — ऊर्ध्वगामी धर्मो को — जीवन मे प्रकट करके उनमे तन्मय होना । सामान्य लोगो मे ब्रह्मचर्य शब्द का जो अर्थ प्रसिद्ध है और जो ऊपर कहे गये सम्पूर्ण सयम का मात्र एक अश ही है वह अर्थ ब्रह्मचर्य शब्द की दूसरी व्याख्या मे जैन शास्त्रो ने भी मान्य रखा है।' उस व्याख्या के अनुसार ब्रह्मचर्य यानी मैथुनविरमण अर्थात् कामसग का - कामाचार का - अब्रह्म का त्याग । इस दूसरे अर्थ मे ब्रह्मचर्य का शब्द इतना अधिक प्रसिद्ध हो गया है कि ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी कहने से प्रत्येक व्यक्ति उसका अर्थ सामान्यतः इतना ही समझता है कि मैथुनसेवन से दूर रहना ब्रह्मचर्य है और जीवन के दूसरे अशो मे चाहे जितना असयम होने पर भी मात्र कामसंग से दूर रहता हो तो वह ब्रह्मचारी है । यह दूसरा अर्थ ही व्रत नियम स्वीकार करते समय लिया जाता है और इसीलिए जब कोई गृहत्याग करके भिक्षु होता है अथवा घर मे रहकर मर्यादित त्याग का स्वीकार करता है, तब ब्रह्मचर्य का नियम अहिंसा के नियम से अलग करके ही लिया जाता है । " २. अधिकारी तथा विशिष्ट स्त्री-पुरुष (अ) स्त्री अथवा पुरुष जाति का तनिक भी भेद रखे बिना दोनों को समान रूप से ब्रह्मचर्य के अधिकारी माना है । इसके लिए आयु, देश, काल इत्यादि किसी का प्रतिबन्ध नही है । इसके लिए स्मृतियो मे भिन्न मत हैं । उनमें इस प्रकार के समान अधिकारो को अस्वीकार किया गया है । ब्रह्मचर्य १. तत्त्वार्थभाष्य अ० ९, सू० ६ । २. अहिंसा और ब्रह्मचर्य के पालन की प्रतिज्ञा के लिए देखो पाक्षिकसूत्र पृ० ८ तथा २३ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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