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जैनधर्म का प्राण
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नही।' आन्तरिक व आध्यात्मिक तप तो अन्य ही है, जो आत्मशुद्धि से अनिवार्य सबन्ध रखते है और ध्यान-ज्ञान आदि रूप है। महावीर ने पार्वापत्यिक निर्ग्रन्थ-परपरा मे चले आनेवाले बाह्य तप को स्वीकार तो किया, पर उसे ज्यो का त्यो स्वीकार नही किया, बल्कि कुछ अश मे अपने जीवन के द्वारा उसमे उग्रता ला करके भी उस देहदमन का सबन्ध आभ्यन्तर तप के साथ जोड़ा और स्पष्ट रूप से कह दिया कि तप की पूर्णता तो आध्यात्मिक शद्धि की प्राप्ति से ही हो सकती है। खद आचरण से अपने कथन को सिद्ध करके जहाँ एक ओर महावीर ने निर्ग्रन्थ परपरा के पूर्वप्रचलित शुष्क देहदमन में सुधार किया, वहाँ दूसरी ओर अन्य श्रमण-परपराओ मे प्रचलित विविध देहदमनो को भी अपूर्ण तप और मिथ्या तप बतलाया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तपोमार्ग मे महावीर की देन खास है और वह यह कि केवल शरीर और इन्द्रियदमन मे समा जानेवाले तप शब्द के अर्थ को आध्यात्मिक शुद्धि मे उपयोगी ऐसे सभी उपायो तक विस्तृत किया । यही कारण है कि जैन आगमो मे पद-पद पर आभ्यतर और बाह्य दोनो प्रकार के तपो का साथ-साथ निर्देश आता है।
बुद्ध को तप की पूर्व परपरा छोडकर ध्यान-समाधि की परपरा पर ही अधिक भार देना था, जब कि महावीर को तप की पूर्व परपरा विना छोडे भी उसके साथ आध्यात्मिक शुद्धि का सबन्ध जोडकर ही ध्यान-समाधि के मार्ग पर भार देना था। यही दोनो की प्रवृत्ति और प्ररूपणा का मुख्य अन्तर था। महावीर के और उनके शिष्यो के तपस्वी जीवन का जो समकालीन जनता के ऊपर असर पडता था उससे बाधित होकर के बुद्ध को अपने भिक्षुसघ मे अनेक कडे नियम दाखिल करने पडे, जो बौद्ध विनय-पिटक को देखने से मालूम हो जाता है। तो भी बुद्ध ने कभी बाह्य तप का पक्षपात नहीं किया, बल्कि जहाँ प्रसग आया वहाँ उसका परिहास ही किया। खुद बुद्ध की इस शैली को उत्तरकालीन सभी बौद्ध लेखको ने अपनाया है। फलत. आज
१. उत्तरा० ३ ।
२. उदाहरणार्थ-वनस्पति आदि के जन्तुओ की हिसा से बचने के लिए चातुर्मास का नियम-बौद्ध सघनो परिचय (गुजराती) पृ० २२ ।