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जैनधर्म का प्राण
१११ अहिंसा है। जैन ग्रन्थों मे प्राचीन काल से चली आनेवाली आत्मघात की प्रथाओ का निषेध किया है। पहाड से गिरकर, पानी मे डूबकर, जहर खाकर आदि प्रथाएँ मरने की थी और है-धर्म के नाम पर भी और दुनयावी कारणों से भी। जैसे पशु आदि की बलि धर्म रूप मे प्रचलित है वैसे ही आत्मबलि भी प्रचलित रही, और कही-कही अब भी है, खासकर शिव या शक्ति के सामने।
एक तरफ से ऐसी प्रथाओं का निषेध और दूसरी तरफ से प्राणान्त अनशन या सथारे का विधान । यह विरोध जरूर उलझन मे डालनेवाला है, पर भाव समझने पर कोई भी विरोध नही होता। जैनधर्म ने जिस प्राणनाश का निषेध किया है वह प्रमाद या आसक्तिपूर्वक किये जानेवाले प्राणनाश का ही। किसी ऐहिक या पारलौकिक सपत्ति की इच्छा से, कामिनी की कामना से और अन्य अभ्युदय की वाच्छा से धर्मबुध्या तरह-तरह के आत्मवध होते रहे है । जैनधर्म कहता है वह आत्मवध हिसा है, क्योकि उसका प्रेरक तत्त्व कोई-न-कोई आसक्त्तिभाव है । प्राणान्त अनशन और सथारा भी यदि उसी भाव से या डर से या लोभ से किया जाय तो वह हिसा हो है। उसे जैनधर्म करने की आज्ञा नही देता। जिस प्राणान्त अनशन का विधान है, वह है समाधिमरण।।
जब देह और आध्यात्मिक सद्गुण-सयम-इनमे से एक ही की पसदगी करने का विषम समय आ गया तब यदि सचमुच सयमप्राण व्यक्ति हो तो वह देहरक्षा की परवाह नहीं करेगा । मात्र देह की बलि देकर भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचा लेगा; जैसे कोई सच्ची सती दूसरा रास्ता न देखकर देह-नाश के द्वारा भी सतीत्व बचा लेती है। पर उस अवस्था मे भी वह व्यक्ति न किसी पर रुष्ट होगा, न किसी तरह भयभीत और न किसी सुविधा पर तुप्ट । उसका ध्यान एकमात्र सयत जीवन को बचा लेने और समभाव की रक्षा मे ही रहेगा। जब तक देह और सयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो, तब तक दोनो की रक्षा कर्तव्य है, पर एक की ही पसदगी करने का सवाल आवे तब हमारे जैसे देहरक्षा पसद करेगे और आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेगे, जबकि समाधिमरण का अधिकारी उल्टा करेगा। जीवन तो दोनों ही है-दैहिक और आध्यात्मिक । जो जिसका