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________________ जैनधर्म का प्राण योग यानी जिससे मोक्ष प्राप्त किया जा सके वैसा धर्मव्यापार । अनादि कालचक्र मे जब तक आत्मा की प्रवृत्ति स्वरूप-पराडमुख होने से लक्ष्यभ्रष्ट होती है, उस समय तक की उसकी सारी क्रिया शुभाशय से रहित होने से योगकोटि मे नही आती । जव से उसकी प्रवृत्ति बदलकर स्वरूपोन्मुख होती है तभी से उसकी क्रिया मे शुभाशय का तत्त्व दाखिल होता है। वैसा शुभाशयवाला व्यापार धर्मव्यापार कहलाता है, और फलत मोक्षजनक होने से वह योग के नाम का पात्र बनता है । इस प्रकार आत्मा के अनादि ससारकाल के दो भाग हो जाते है एक अधामिक और दूसरा धार्मिक । अधार्मिक काल मे धर्म की प्रवत्ति हो तो भी वह धर्म के लिए नही होती, केवल लोकपक्ति (लोकरजन) के लिए होती है । अतएव वैसी प्रवत्ति धर्मकोटि मे गिनने योग्य नही है । धर्म के लिए धर्म की प्रवृत्ति धार्मिक काल मे ही शुरू होती है । इसीलिए वैसी प्रवृति योग कहलाती है।' योग के उन्होने अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसक्षय ये पाँच भाग किये है। (१) जब थोड़े या अधिक त्याग के साथ शास्त्रीय तत्त्वचिन्तन होता है और मैत्री, करुणा आदि भावनाएँ विशेप सिद्ध हो जाती है तब वह स्थिति अध्यात्म कहलाती है। (२) जब मन समाधिपूर्वक सतत अभ्यास करने से अध्यात्म द्वारा सविशेष पुष्ट होता है तब उसे भावना कहते है । भावना से अशुभ अभ्यास दूर होता है, शुभ अभ्यास की अनुकूलता बढती है और सुन्दर चित्त की वृद्धि होती है। (३) जब चित्त केवल शुभ विषय का ही अवलम्बन लेता है और उससे स्थिर दीपक के जैसा प्रकाशमान हो वह सूक्ष्म बोधवाला बन जाता है तब उसे ध्यान कहते है। ध्यान से चित्त प्रत्येक कार्य में आत्माधीन हो जाता है, भाव निश्चल होता है और बन्धनो का विच्छेद होता है । (४) अज्ञान के कारण इष्ट-अनिष्ट रूप से कल्पित वस्तुओ मे से १. देखो योगबिन्दु ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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