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जैनधर्म का प्राण श्री हरिभद्रसूरि द्वारा दूसरे प्रकार से वर्णित विकासक्रम
इस प्राचीन जैन विचार का वर्णन हरिभद्रसूरि ने दूसरी रीति से भी किया है। उनके वर्णन मे दो प्रकार पाये जाते है।
आठ दृष्टि का पहला प्रकार पहले प्रकार मे उन्होने अविकास और विकासक्रम दोनो का समावेश किया है। उन्होने अविकासकाल को ओघदृष्टि और विकासक्रम को सदृष्टि सज्ञा दी है। सद्वृष्टि के मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा ये आठ विभाग किये है। इन आठ विभागों में विकास का क्रम उत्तरोत्तर बढता जाता है।
दृष्टि अर्थात् दर्शन अथवा बोध । इसके दो प्रकार है : पहले मे सत्श्रद्धा (तात्त्विक रुचि का) अभाव होता है, जबकि दूसरे मे सत्-श्रद्धा होती है । पहला प्रकार ओघदृष्टि और दूसरा योगदृष्टि कहलाता है। पहले मे आत्मा की वृत्ति ससारप्रवाह की ओर तथा दूसरे मे आध्यात्मिक विकास की ओर होती है। इसीलिए योगदृष्टि सदृष्टि कही जाती है।
जैसे समेघ रात्रि, अमेघ रात्रि, समेघ दिवस और अमेघ दिवस मे अनु-- क्रम से अतिमन्दतम, मन्दतम, मन्दतर और मन्द चाक्षुष ज्ञान होता है और उसमे भी ग्रहाविष्ट और ग्रहमुक्त पुरुप के भेद से, बाल और तरुण पुरुष के भेद से तथा विकृत नेत्रवाले और अविकृत नेत्रवाले पुरुष के भेद से चाक्षुष ज्ञान की अस्पष्टता या स्पष्टता तरतभाव से होती है, वैसी ही ओघदष्टि की दशा मे ससारप्रवाह की ओर रुझान होने पर भी आवरण के तरतमभाव से ज्ञान तारतम्यवाला होता है । यह ओघदृष्टि चाहे जैसी हो, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से वह असदृष्टि ही है। उसके पश्चात् जब से आध्यात्मिक विकास का आरम्भ होता है, फिर भले ही उसमें
१. देखो योगदृष्टिसमुच्चय ।
२ इसकी विशेष जानकारी के लिए देखो 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' में व्याख्यान ५, पृ० ८० तथा विशेष रूप से पृ० ८५ से आगे ।-सम्पादक