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जैनधर्म का प्राण
रूप से मोहनीय कर्म की विरलता एव क्षय के आधार पर की गई है। मोह नीय कर्म की मुख्य दो शक्तियाँ है । पहली शक्ति का कार्य आत्मा के सम्यक्त्व गुण को आवृत करने का है, जिससे कि आत्मा मे तात्त्विक रुचि अथवा सत्यदर्शन नही होने पाता। दूसरी शक्ति का कार्य आत्मा के चारित्र गुण को आवृत करने का है, जिससे आत्मा तात्त्विक रुचि या सत्यदर्शन के होने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति करके स्वरूपलाभ प्राप्त नही कर सकती। सम्यक्त्व की प्रतिबन्धक मोहनीय की प्रथम शक्ति दर्शनमोहनीय और चारित्र की प्रतिबन्धक मोहनीय की दूसरी शक्ति चारित्रमोहनीय कहलाती है। इन दोनो मे दर्शनमोहनीय प्रवल है, क्योकि जब तक उसकी विरलता या क्षय न हो तब तक चारित्र मोहनीय का बल कम नहीं होता। दर्शनमोहनीय का वल घटने पर चारित्रमोहनीय क्रमग निर्बल होकर अन्त मे सर्वथा क्षीण हो ही जाता है। समस्त कर्मावरणो मे प्रधानतम और बलवत्तम मोहनीय ही है । इसका कारण यह है कि जब तक मोहनीय की शक्ति तीव्र होती है तब तक अन्य आवरण भी तीव्र ही रहते है और उसकी शक्ति कम होते ही अन्य आवरणो का बल मन्द होता जाता है । इसी कारण गुणस्थानो की कल्पना मोहनीय कर्म के तरतमभाव के आधार पर की गई है।
वे गुणस्थान ये है--(१) मिथ्यादृष्टि, (२) सास्वादन, (३) सम्यक्-मिथ्यादृष्टि, (४) अविरतसम्यग्दृष्टि, (५) देशविरति (विरताविरत), (६) प्रमत्तसयत, (७) अप्रमत्तसयत, (८) अपूर्वकरण (निवृत्तिबादर), (९) अनिवृत्तिबादर, (१०) सूक्ष्मसम्यराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) भीणमोह, (१३) सयोगकेवली, (१४) अयोगकेवली।
(१) जिस अवस्था में दर्शनमोहनीय की प्रबलता के कारण सम्यक्त्व गुण आवृत होने से आत्मा की तत्त्वरुचि ही प्रकट नही हो सकती और जिससे उसकी दृष्टि मिथ्या (सत्य विरुद्ध) होती है वह अवस्था मिथ्यादृष्टि है।
(२) ग्यारहवे गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान पर पहुंचने तक बीच मे बहुत ही थोड़े समय की जो अवस्था प्राप्त होती है वह सास्वादन
१. देखो समवायाग, १४ वाँ समवाय ।