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________________ डालता है। इस प्रकार एकमात्र अहिसा के पालन से मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है । जीवन में अहिसा का परिपूर्ण पालन करना हो तो विचार में अनेकान्त को बिना अपनाये चल नही सकता। इसी से अहिसा मे से ही जैनधर्म का दार्शनिक सिद्धान्त 'अनेकान्त' फलित हुआ है। विचार के द्वार खुले रखो, तुमको सबके विचारो मे से सत्य की प्राप्ति होगी यह है अनेकान्त का अर्थ । सत्य के आग्रही को सर्वप्रथम 'मेरा सो सच्चा, दूसरा सब खोटा' ऐसा कदाग्रह छोड़ना ही चाहिए। जबतक वह ऐसा कदाग्रह न छोडे तबतक उससे दूसरे के प्रति अन्याय हो ही जायगा, और यही तो हिसा है। इससे अहिसक के लिए अनेकान्तवादी होना अनिवार्य है । फलत जैनधर्म मे जिस दर्शन का विकास हुआ, वह एकान्तवादी नही, किन्तु अनेकान्तवादी है । ___अहिसा का जीवन-व्यवहार के लिए जो आचार है, वही जैनधर्म है और अहिसा मे से फलित होने वाला दर्शन ही जैनदर्शन है। इससे जैनधर्म के अनुयायी श्रमण के जीवन-व्यवहार मे स्थूल जीव की रक्षा से आगे बढकर जो सूक्ष्म जीव है और जो चर्मचक्षुओं से नही दीखते, उनकी रक्षा की भी भावना निहित है, और इसी भावना के आधार पर ही आचार के विधि-निषेधो के सोपानो की रचना हुई है। इसके सम्पूर्ण अनुसरण का प्रयत्न श्रमण तथा आशिक अनुसरण का प्रयत्न श्रावक करते है । आचार के पीछे दर्शन न हो तो आचार की साधना में निष्ठा नहीं आती। इसी कारण प्रत्येक धर्म को जीव के बन्ध-मोक्ष तथा जीव के जगत के साथ के सम्बन्ध एव जगत के स्वरूप के बारे मे विचार करना पड़ता है। इस अनिवार्यता मे से समग्र जैन दर्शन का उद्भव हुआ है। पहले कहा है कि जैनदर्शन के विचार की विशेषता यह है कि वह सत्य की शोध के लिए तत्पर है और इसीलिए 'सम्पूर्ण दर्शनो का समूह रूप जैनदर्शन हैं-ऐसा उद्घोष आचार्य जिनभद्र जैसे आचार्यों ने किया है। ___जैनदर्शन मे मूल दो तत्त्व है : जीव और अजीव । इन दोनो का विस्तार पाच अस्तिकाय, छ द्रव्य अथवा सात या नव तत्त्व के रूप मे
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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