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दूसरी जड़ । संसार के समस्त पदार्थ इनही दो वस्तुओं में गर्मित हो जाते हैं, इनसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है । इन दोनो वस्तुओं का असली स्वभाव ही इनका धर्म है। आत्मा का असली स्वभाव क्षमा मार्दवार्जवादि है। क्षमा, क्रोध का अभाव है। क्रोध से हिंसा होती है इसलिए हिंसा धर्म नहीं, किन्तु अहिंसा ही धर्म है। आत्मा का असली स्वभाव मार्दव (मृदुता) है। मृदुता, मान के प्रभाव से आती है मान से असत्योचारण रूप राग द्वेषादि होते हैं अतः सर्वथा निरभिमानता ही धर्म है । इसी प्रकार प्रार्जव, सत्य निर्लोभता, त्याग, संयम, अपरिग्रह आदि ही धर्म की कसोटी पर उतरते हैं। इस धर्म के पालन में श्रात्मा मे विशिष्टता और पवित्रता आती चली जाती है । यदि इस धर्म को भी घातक वस्तु समझनी जावे तो चोर बाजारी श्रादि पापों का विरोध किस आधार पर और कैसे हों ? आज के बिगड़े हुये देश को उक्त धर्म की बड़ी भारी आवश्यकता है। धर्म की न्यूनता अथवा अभाव से ही आज देश की दुर्दशा हो रही है।
___ जिन उपायों से वस्तु स्वभावोपलब्धि आत्मा को हो उसको भी धर्म ही कहा जायगा । जो सांसारिक विषय भोगों को धर्म का फल मानते हैं वे धर्म के स्वरूप तथा फल से अनभिज्ञ है। सांसारिक विषय भोग तो कर्माधीन सांत और कश परिणामी हैं। धर्म सेवन से ऐसे सुखों की बांधा करना तो दोष और मालित्य है। धर्म का फल तो अनन्त सुख, अनंत झान, अनंत दर्शन और