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________________ प्रकार के खाने पीने तथा कैसी भी स्त्री के परिणय में प्रतिषन्ध न रहे और अनर्गल विषय प्रवृत्ति चले, यही अन्न तानुबन्धी लोम कषाय इस ध्वनि में कारण है। वर्तमान मुनिजनों में पारस्परिक मतैक्य नहीं इसमें तो कषाय को ही कारण रहने दीजिए परन्तु सर्वथा शास्त्रोक्तविधि से चलने वाले मुनिजन भी भोजनादि में बहुत सी वस्तुओं का त्याग कर देते हैं । एक जैन गृहस्थ मांस भक्षण, मदिरा पान, मधु सेवनादि नहीं करता तो क्या इस त्याग को क्रोध कषाय [द्वष] का रूप दिया जायगा ? इस प्रकार तो यदि सभी चीजों को ग्रहण किया जायगा तो राग कषाय होगया ओर सभी को छोड़ा गया तो द्वेष कषाय हो गया, ता न किसी का ग्रहण उचित और न किसी का छोडना ही उचित, क्यों कि राग द्वेष के त्याग करना ही चाहिये, तो फिर यह मानव कैसे जीवन व्यतीत करे ? इस असमंजसता में यही उचित होता है कि बुरी वस्तुओं का त्याग करे और अच्छी का ग्रहण करे। अच्छी बुरी की यही पहचान है कि आत्मा के लिये हितकर हो वह तो अच्छो, वाकी बुरी । अब देखना यह है कि जाति भेद प्रात्मा के लिये हितकर है या अहित कर ? तात्विक दृष्टि से विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि यदि जाति भेद उठ जाता है तो विषयभोगों में अनर्गल प्रवृत्ति की अत्यन्त वृद्धि हो कर राग भाष की विशेषता से आत्मा का अनिष्ट होता है इसलिए मध्यम मार्गगृहस्थोचित यह है कि बहुत छोटे २
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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