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विरोधमें लड़ना झगड़ना या आगम प्रमाण टटोलना
वृथा है ! आगे जाकर येही सोमदेवाचार्य कहतेहैं कि'दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्रचत्वारश्च विधोचिताः ।
मनोवाकायधर्माय मताः सवेऽपि जंतवः ।। भावार्य-ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रमें दीक्षायोग्य तो प्रारंभके
तीन ही वर्ण हैं, यों चारोंही वर्ण अपने २ कार्य और प्रकारमें उचित है । बाकी सभी जंतु मन वचन कायसे
धर्म के लिए यथाशक्ति माने गये हैं। जातियों के नाम कैसे पड़ गये ?
यह तो नर्विवाद मानना पड़ेगा कि मनुष्यजाति अनादि कालीन है। यहभी नियम है कि असत्की उत्पति नहीं होती अगर जाति, वास्तव में न होती तो उसकी उत्पत्ति भी नहीं होती। उत्पत्तिका अर्थ जो नये रूपसे होना मानते हैं वे सर्वथा भूल करते हैं, उत्पत्तिका अर्थ प्रकट होना है । . मनुष्यभी थे ही, स्त्री पुरुषभी थे ही, जातिनाम कर्म जो अनादिकालीन आत्माके साथ संबद्ध है वह भी था ही-इन सब बातों से यह तोमानलेना पड़ेगा कि जातीयता तो अनादि कालीन ही है। अब रही इन खंडेलवाल ओसवाल माहेश्वरी माथुर भार्गव आदि नामों की विभिन्नता की बात ? सो बात यह है कि किसी कारणसे नाम