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होता हुआ भी अन्य लोगों का तिरस्कार करताथा उसकी बुद्धि को ठिकाने पर लाने के लिए उसे अमित गति आचार्य पर्य जाति मात्र ( केवल जाति ) का मद न करने के लिए उपदेश दे रहे हैं परन्तु उससे आजकल के अनर्गल स्वच्छंदता प्रेमी लोग अनुचित लाभ उठा रहे हैं । अनेक संस्कृत और धर्म के ज्ञाता कहलाने वाले विद्वान् भी पाश्चात्य वायु की प्रेरणा से यद्वा तद्वा ऐकान्तिकता
और सापेक्षशून्यता के शिकार हो रहे हैं। शास्त्रीय रहस्यों को समझने के लिए समन्वय दृष्टि, अपेक्षावाद और कथन के उद्देश्य को बुद्धि में उतारने की बड़ो भारी आवश्यकता है इसके बिना समस्त ज्ञान और उसका प्रचार यह सब आडम्बर और आरोप मात्र है।
केवल जातिवाद अर्थात् केवल जाति को ही सर्वोत्कृष्ट मान कर संसार भर के पापों को करके भी अपने को कोई बड़ा मानता रहे, ऐसा कोई भी नहीं चाहता, उसको सागलोचना
और निंदा तो प्रत्येक व्यक्ति करेगा और साथ साथ उसके उस थोथे जाति मद की प्रशंसा भी कौन करेगा ? जाति का अस्तित्व और जाति का मद।
जाति का ही क्यों ? मद तो प्रत्येक बात का ही बुरा है । मद युक्त प्राणी सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता परन्तु मद कहते किसे है यह भी तो देखना और समझना है । 'मद' शब्द 'मदी