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किन्तु सत्य शौचादि भी कारण है अर्थात् जाति तो है ही किन्तु जाति के अतिरिक्त ये भी परमावश्यक हैं। जातिमद करनेवाले व्यक्ति के लिए जो सत्यशौचादि से हीन और शुन्य था और केवल जाति के कारण अभिमान करता था उसे श्री अमितगति आचार्यवर्य कहते हैं कि केवल जाति ही धर्म में कारण नही है किन्तु जाति के साथ सत्यशौचादि भी। ___ जातिमद करने वाले व्यक्ति को उमके जाति मद को चूर करने के लिए उक्त आचार्य श्री कहते हैं कि प्राचार भेद से जाति भेद को कल्पना है, कोई ब्राह्मणीय जाति नियत हो सो बात नहीं है । मूल का पता लगाया जाय तो मनुष्य जाति एक ही है किन्तु प्राचार मे भिन्नता है इसलिए तुझे जाति की उरुचता कायम रखनी है तो सदाचार का पालन कर, क्योंकि केवल जाति से हो कोई उच्च नहीं हो सकता । जिस जाति में संयम नियम शील तप दान दम दान होते हैं, तत्व से वही जाति बड़ी होती है। गुणों से जाति संपत्तिशालिनी होती है और गुणनाश अथवा दोषोंसे विपत्तिशालिनी । इसलिए विद्वानों का कर्तव्य है कि गुणों का परम आदर करे। जाति मात्र ( केवल जाति ) का मद करना नीचता की ओर लेजाने वाला है इसलिए सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि शील का आदर करे।
'शील समादरः' इस पद से विदित होता है कि किसी उप जातीय अभिमानी किन्तु व्यभिचारी व्यक्ति को लक्ष्य में रखते हुये