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जैनदर्शन अनूठी रचना है। अठारहवीं सदीमें यशस्वतसागरने सप्तपदार्थी आदि ग्रन्थोंकी रचना की।
अकलंकदेवके प्रतिष्ठापित प्रमाणशास्त्रपर अनेकों विद्वच्छिरोमणि आचार्यों ने ग्रन्थ लिखकर जैनदर्शनके विकासमें जो भगीरथ प्रयत्न किये हैं उनकी यह एक झलक मात्र है। ___ इसी तरह उपेयके उत्पादादित्रयात्मक स्वरूप तथा आत्माके स्वतन्त्र तथा अनेक द्रव्यत्वकी सिद्धि उक्त आचार्योंके ग्रन्थोंमें बराबर पाई जाती है।
उपसहार मूलतः जैनधर्म आचारप्रधान है। इसमें तत्त्वज्ञानका उपयोग भी आचारशुद्धिके लिए ही है। यही कारण है कि तर्क जैसे शुष्क शास्त्रका उपयोग भी जैनाचार्योंने समन्वय और समताके स्थापनमें किया है। दर्शनिक कटाकटीके युगमें भी इस प्रकारको समता और उदारता तथा एकताके लिये प्रयोजक समन्वयदृष्टि का कायम रखना अहिंसाके पुजारियोंका ही कार्य था। स्याद्वादके स्वरूप तथा उसके प्रयोगकी विधियोंके विवेचनमें ही जैनाचार्योने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इस तरह दार्शनिक एकता स्थापित करनेमें जैनदर्शनका अकेला और स्थायी प्रयत्न रहा है। इस जैसी उदार सूक्तियाँ अन्यत्र कम मिलती हैं । यथा
"भवबीजाङ्करजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥"-हेमचन्द्र ।
अर्थात् जिसके संसारको पुष्ट करनेवाले रागादि दोष विनष्ट हो गये है, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो, या जिन हो उसे नमस्कार है।
"पक्षपातो न मे वीरेन द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः॥"-लोकतत्त्वनिर्णय ।
अर्थात् मुझे महावीरसे राग नहीं है और न कपिल आदिसे द्वेष । जिसके भी वचन युक्तियुक्त हों, उसकी शरण जाना चाहिये ।