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जैनदर्शन
पाया जाता है । हरिभद्रके शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका और अनेकान्तवादप्रवेश आदिमं बौद्धदर्शनकी प्रखर आलोचना है । एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जहाँ वैदिकदर्शनके ग्रन्थोंमें इतर मतों का मात्र खंडन हो खंडन है वहां जैनदर्शनग्रन्थोंमें इतर मतोंका नय और स्याद्वाद - पद्धति से विशिष्ट समन्वय भी किया गया है । इस तरह मानस अहिंसाकी उसी उदार दृष्टिका परिपोषण किया गया है । हरिभद्रके शास्त्र - वार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय और धर्मसंग्रहणी आदि इसके विशिष्ट उदाहरण है । यहाँ यह लिखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि चार्वाक, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसक आदि मतोंके खंडनमें धर्मकीर्तिने जो अथक श्रम किया है उससे इन आचार्योंका उक्त मतोंके खंडनका कार्य बहुत कुछ सरल बन गया था ।
जब धर्मकीर्तिके शिष्य देवेन्द्रमति, प्रज्ञाकरगुप्त, कर्णकगोमि, शांतरक्षित और अर्चंट आदि अपने प्रमाणवार्तिकटीका, प्रमाणवार्तिकालंकार, प्रमाणवार्तिकस्ववृत्तिटीका, तत्त्वसंग्रह, वादन्यायटीका और हेतुबिन्दुटोका आदि ग्रन्थ रच चुके और इनमें कुमारिल, ईश्वरसेन और मंडनमिश्र आदि मतोंका खंडन कर चुके तथा वाचस्पति, जयन्त आदि उस खंडनोद्वारके कार्य में व्यस्त थे तब इसी युगमें अनन्तवीर्यने बौद्धदर्शनके खंडनमें सिद्धिनिश्चयटीका बनाई | आचार्य सिद्धसेनके सन्मतिसूत्र और अकलंकदेवके सिद्धिविनिश्चयको जैनदर्शनप्रभावक ग्रन्थोंमें स्थान प्राप्त है । आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और युक्त्यनुशासनटीका जैसे जैनन्याय के मूर्धन्य ग्रन्थोंको बनाकर अपना नाम सार्थक किया । इसी समय उदयनाचार्य, भट्ट श्रीधर आदि वैदिक दार्शनिकोंने वाचस्पति मिश्रके अवशिष्ट कार्य को पूरा किया । यह युग विक्रमकी ८वीं, 8वीं सदीका था । इसी समय आचार्य माणिक्यनंदिने परीक्षामुखसूत्रकी रचना की । यह जैन न्यायका आद्य सूत्रग्रन्थ है जो आगेके सूत्रग्रन्थोंके लिये आधारभूत आदर्श सिद्ध हुआ ।