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जैनदर्शन और विश्वशान्ति
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मामलों में अहस्तक्षेप आदि सभी आधार एक व्यक्तिस्वातन्त्र्यके मान लेने से ही प्रस्तुत हो जाते हैं । और जब तक इन सर्वसमतामूलक अहिंसक आधारोंपर समाजरचनाका प्रयत्न न होगा, तब तक विश्वशान्ति स्थापित नहीं हो सकती । आज मानवका दृष्टिकोण इतना विस्तृत, उदार और व्यापक हो गया है जो वह विश्वशान्तिकी बात सोचने लगा है । जिसदिन व्यक्तिस्वातन्त्र्य और समानाधिकारकी बिना किसी विशेषसंरक्षणके सर्वसामान्यप्रतिष्ठा होगी, वह दिन मानवताके मंगलप्रभातका पुण्यक्षण होगा । जैनदर्शनने इन आधारोंको सैद्धान्तिक रूप देकर मानवकल्याण और जीवनकी मंगलमय निर्वाहपद्धति के विकास में अपना पूरा भाग अर्पित किया है । और कभी भी स्थायी विश्वशान्ति यदि संभव होगी, तो इन्हीं मूल आधारोंपर ही वह प्रतिष्ठित हो सकती है ।
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भारत राष्ट्रके प्राण पं० जवाहिरलाल नेहरूने विश्वशान्तिके लिये जिन पंचशील या पंचशिलाओंका उद्घोष किया है और बाडुङ्ग सम्मेनमें जिन्हें सर्वमतिसे स्वीकृति मिली, उन पंचशीलोंकी बुनियाद अनेकान्तदृष्टि —- समझौते की वृत्ति, सहअस्तित्वको भावना, समन्वयके प्रति निष्ठा और वर्ण, जाति रंग आदिके भेदोंसे ऊपर उठकर मानवमात्रके सम-अभ्युदयकी कामनापर ही तो रखी गई है । और इन सबके पीछे है मानवका सम्मान और अहिंसामूलक आत्मौपम्यकी हार्दिक श्रद्धा । आज नवोदित भारतकी इस सर्वोदयी परराष्ट्रनीतिने विश्वको हिंसा, संघर्ष और युद्धके दावानलसे मोड़कर सहअस्तित्व, भाईचारा और समझौतेकी सद्भावनारूप अहिंसाकी शीतल छाया में लाकर खड़ा कर दिया है । वह सोचने लगा है कि प्रत्येक राष्ट्रको अपनी जगह जीवित रहनेका अधिकार है, उसका स्वास्तित्व है, परके शोषणका या उसे गुलाम बनानेका कोई अधिकार नहीं है, परमें उसका अस्तित्व नहीं है । यह परके मामलोंमें अहस्तक्षेप और स्वास्तित्वकी स्वीकृति ही विश्वशान्तिका मूलमन्त्र है । यह सिद्ध हो सकती है -अहिंसा, अनेकान्तदृष्टि और जीवनमें भौतिक