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जैनदर्शन
उपायतत्त्व :
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उपाय तत्त्वोंमें महत्त्वपूर्ण स्थान नय और स्याद्वादका हैं । नय सापेक्ष दृष्टिका नामान्तर है । स्याद्वाद भाषाका वह निर्दोष प्रकार है जिसके द्वारा अनेकान्तवस्तुके परिपूर्ण और यथार्थ रूपके अधिक-से-अधिक समीप पहुँचा जा सकता है । आ० कुन्दकुन्दके पंचास्तिकायमें सप्तभंगीका हमें स्पष्ट रूपसे उल्लेख मिलता है । भगवतीसूत्रमें जिन अनेक भंगजालोंका वर्णन है, उनमें से प्रकृत सात भंग भी छाँटे जा सकते हैं । स्वामी समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा में इसी सप्तभंगीका अनेक दृष्टियोंसे विवेचन है । उसमें सत्असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, द्वैत-अद्वैत, दैव-पुरुषार्थ, पुण्य-पाप आदि अनेक प्रमेयोंपर इस सप्तभंगी को लगाया गया है । सिद्धसेनके सन्मतितर्कमें अनेकान्त और नयका विशद वर्णन है । आ० समन्तभद्रने "विधेयं वार्य" आदि रूपसे सात प्रकारके पदार्थ ही निरूपित किये हैं । दैव और पुरुषार्थ - का जो विवाद उस समय दृढमूल था उसके विषयमें स्वामीसमन्तभद्रने स्पष्ट लिखा है कि न तो कोई कार्य केवल दैवसे होता है और न केवल पुरुषार्थसे । जहाँ बुद्धिपूर्वक प्रयत्नके अभाव में फलप्राप्ति हो वहाँ दैवकी प्रधानता माननी चाहिये और पुरुषार्थको गौण तथा जहाँ बुद्धिपूर्वक प्रयत्नसे कार्यसिद्धि हो वहाँ पुरुषार्थको प्रधान और दैवको गौण मानना चाहिए ।
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इस तरह आ० सामन्तभद्र और सिद्धसेनने नय, सप्तभंगी, अनेकान्त आदि जैनदर्शनके आधारभूत पदार्थोंका सांगोपांग विवेचन किया है । इन्होंने उस समयके प्रचलित सभी वादोंका नयदृष्टिसे जैनदर्शनमें समन्वय किया और सभी वादियोंमें परस्पर विचारसहिष्णुता और समता लानेका प्रयत्न किया । इसी युगमें न्यायभाष्य, योगभाष्य और शावर भाष्य आदि भाष्य रचे गये हैं । यह युग भारतीय तर्कशास्त्र के विकासका प्रारंभ युग
१. देखो, जैनतर्क वार्तिक प्रस्तावना पृ० ४४-४८ |
२. बृहत्स्वय० श्लो० ११८ । ३. आप्तमी० श्लो० ९१ ।