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जैनदर्शन
धान हो जाता है । उसका खास कारण यह है कि जहाँ वस्तु उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक एवं अनन्तगुण- पर्यायवाली है वहीं वह अनन्तधर्मोसे युक्त भी है । उसमें कल्पित - अकल्पित सभी धर्मोंका निर्वाह है और तत्त्वोप्लववादियों जैसे वावदूकोंका उत्तर तो अनेकान्तवादसे ही सही-सही दिया जा सकता है । विभिन्न अपेक्षाओंसे वस्तुको विभिन्नरूपोंमें देखा जाना ही अनेकान्ततत्त्वको रूपरेखा है । ये महाशय अपने कुविकल्पजालमें मस्त होकर दिगम्बरोंको मूर्ख कहते हुए अनेक भण्ड वचन लिखनेमें नहीं चूके !
तत्त्वोपप्लवकार यही तो कहना चाहते हैं कि 'वस्तु न नित्य हो सकती है, न अनित्य, न उभय, और न अवाच्य । यानी जितने एकान्त प्रकारोंसे वस्तुका विवेचन करते हैं उन उन रूपोंमें वस्तुका स्वरूप सिद्ध नहीं हो पाता ।' इसका सीधा तात्पर्य यह निकलता है कि 'वस्तु अनेकान्तरूप है, उसमें अनन्तधर्म है । अतः उसे किसी एकरूपमें नहीं कहा जा सकता ।' अनेकान्तदर्शनकी भूमिका भी यही है कि वस्तु मूलतः अनन्तधर्मात्मक है, उसका पूर्णरूप अनिर्वचनीय है, अतः उसका एक-एक धर्मसे कथन करते समय स्याद्वाद-पद्धतिका ध्यान रखना चाहिये, अन्यथा तत्त्वोपप्लवबादी के द्वारा दिये गये दूषण आयेंगे । यदि इन्होंने वस्तु के विधे - यात्मक रूपपर ध्यान दिया होता, तो वे स्वयं अनन्तधर्मात्मक स्वरूपपर पहुँच ही जाते । शब्दोंकी एकधर्मवाचक सामर्थ्य के कारण जो उलझन उत्पन्न होती है उसके निबटारेका मार्ग है स्याद्वाद । हमारा प्रत्येक कथन सापेक्ष होना चाहिए और उसे सुनिश्चत विवक्षा या दृष्टिकोणका स्पष्ट प्रतिपादन करना चाहिये ।
श्रीव्योमशिव और अनेकान्तवाद :
आचार्य व्योमशिव प्रशस्तपादभाष्यके प्राचीन टीकाकार हैं । वे अनेकान्त ज्ञानको मिथ्यारूप कहते समय व्योमवती टीका ( पृ० २० ङ )