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जैनदर्शन श्री जयराशिभट्ट और अनेकान्तवाद : ___ तत्त्वोपप्लवसिंह एक खण्डनग्रन्थ है। इसमें प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्वोंका उपप्लव ही निरूपित है। इसके कर्ता जयराशि भट्ट है । वे दिगम्बरों द्वारा आत्मा और सुखादिका भेदाभेद माननेमें आपत्ति उठते है कि "एकत्व अर्थात् एकस्वभावता । एकस्वभावता माननेपर नानास्वभावता नहीं हो सकती, क्योंकि दोनोंमें विरोध है । उसीको नित्य और उसीको 'अनित्य कसे कहा जा सकता है ? पररूपसे असत्त्व और स्वरूपसे सत्त्व मानना भी उचित नहीं है; क्योंकि-वस्तु तो एक है । यदि उसे अभाव कहते है तो भाव क्या होगा ? यदि पररूपसे अभाव कहा जाता है; तो स्वरूपकी तरह घटमें पररूपका भी प्रवेश हो जायगा । इस तरह सब सर्वरूप हो जायगे। यदि पररूपका अभाव कहते हैं। तो जब पररूपका अभाव है तो वह अनुपलब्ध हुआ, तब आप उस पररूपके द्रष्टा कैसे हुए ? और कैसे उसका अभाव कर सकते हैं ? यदि कहा जाय कि पररूपसे वस्तु नहीं मिलती अतः परका सद्भाव नहीं है, तो अभावरूपसे भी निश्चय नहीं है अतः परका अभाव नहीं कहा जा सकता। यदि पररूपसे वस्तु उपलब्ध होती है तो अभावग्राही ज्ञानसे अभाव हो सामने रहेगा, फिर भावका ज्ञान नहीं हो सकेगा।" आदि ।
१. “ एक हीदं वस्तूपलभ्यते । तच्चेदभावः किमिदानी भावो भविष्यति ? तद्यदि पररूपतया भावः; तदा घटस्य पटरूपता प्राप्नोति । यथा पररूपतया भावत्वेऽङ्गोक्रियमाणे पररूपानुप्रवेशः तथा अभावत्वेऽप्यङ्गीक्रियामाणे पररूपानुप्रवेश एव, ततश्च सर्व सर्वात्मकं स्यात् । अथ पररूपस्य भावः, तदविरोधि त्वेकत्वं तस्याभावः । नहि तस्मिन् सति भवान् तस्यानुपलब्धेदृष्टा, अन्यथा हि आत्मनोऽप्यभावो भवेत् । अथ आत्मसत्ताऽविरोधित्वेन स्वात्मनोऽभावो न भवत्येव; परसत्ताविरोधित्वात् परस्याप्यभावो न भवति । अथापराकारतया नोपलभ्यते तेन परस्य भावो न भवति, अभावाकारतया चानुपलब्धेः परस्याभावोपि न भवेत् । अथ अभावाकारतया उपलभ्यते; तदा भावोऽन्यो नास्ति, अभावाकारान्तरितवात् ,अ भावस्वभावावगाहिना अवबोधेन अभाव एव चोतितो न भावः । ..."
-तत्त्वोप० पृ० ७७-७९ ।